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धमकियों से तो नहीं चल सकती संसद

 

संसद का शीत सत्र धमकियों से ठिठुरता नजर आ रहा है।  इस सात्र के पास कामकाज के लिए गिने-चुने दिन बचे है ।  सात्र 20  दिसंबर को समाप्त हो जाएग।  25  नवमबर से शुरू हुए इस सत्र में या तो हंगामा हुआ है या फिर आपस में धमकियां   दी गयीं हैं।  संसद के सदस्य ही नहीं बल्कि सभापति भी इस घातक,अलोकतांत्रिक और अप्रिय घटनाक्रम में शामिल हैं। संसद के शीत सत्र में जो नजीरें  बन रहीं हैं वे आने वाले दिनों के लिए बड़ी कष्टदायक हो सकती है।  

संसद के शीत सत्र की सबसे बड़ी त्रासदी राज्य सभा के सभापति के खिलाफ विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव है। इस अविश्वास प्रस्ताव का नतीजा हालाँकि '  ढांक के तीन पात ' जैसा ही निकलेगा, लेकिन इसके बहाने संसद में जिस तरह के संवाद  हो रहे हैं,धमकियां दी जा रहें हैं वे बहुत ही अशोभनीय हैं। सभापति जगदीप धनकड़ खुद को किसान का बेटा कहकर विपक्ष के आगे न झुकने की बात कर रहे हैं ,वहीं विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे धनकड़ को अपने हुए अत्याचारों को गिनाकरधनकड़ को  बोना साबित करने में लगे हैं। सदन में एक  भी ऐसा नेता नहीं है है जो इस अप्रिय विवाद को सुलझाने के लिए आगे आया हो। सबके सब आपस में उलझ रहे हैं। जिस सदन में संविधान  पर बहस होना चाहिए थी,उस सदन में बहस कम, मुठभेड़ें ज्यादा हो रहीं हैं।

तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा ने जब जस्टिस लोया की मौत पर सवाल खड़े किए तो उस पर भी सदन में खासा हंगामा हो गया. संविधान को लेकर महुआ मोइत्रा ने संसद में अपनी बात की शुरुआत हिलाल फरीद की नज्म- 'मुबारक घड़ी है.. से की। तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने संविधान पर चर्चा के दौरान न्यायपालिका के रोल पर भी कई टिप्पणियां की. महुआ मोइत्रा ने पूर्व सीजेआई (डीवाई चंद्रचूड़) का बिना नाम लिए के उस बयान का भी जिक्र किया, जिसमें पूर्व चीफ जस्टिस ने राम मंदिर फैसले को लेकर कहा था कि उन्होंने फैसला देने से पहले भगवान का ध्यान लगाया था. महुआ मोइत्रा ने कहा कि हमको संविधान का ध्यान लगाने वाले जज चाहिए ना कि फैसला देने से पहले भगवान का ध्यान लगाने वाल। केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने इस पर आपत्ति दर्ज़ करवाते हुए कहा कि महुआ मोइत्रा ने जो बातें कही है या तो वह उसको सदन में सत्यापित करें या फिर उनके खिलाफ संसदीय परंपरा के तहत कड़ी कार्रवाई की जाएगी।

आपको याद हो की इसे पहले टीएमसी के कल्याण बनर्जी और केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य के बीच भी बहस के दौरान धमकियों का आदान-प्रदान हो चुका है। बनर्जी ने सिंधिया को लेडी किलर कहा था ,तो सिंधिया ने भी उन्हें अपने तरिके से धमकाया था। ऐसी तमाम घटनाएं हैं जो बेहद अफसोसनाक लगती हैं। अब बहुत कम सदस्य ऐसे बचे हैं जिनके बोलते समय संसद में 'पिन ड्राप सायलेंस ' की स्थितियां बनतीं है।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी बोले या विपक्ष के नेता हंगामा होता ही है ,क्योंकि दोनों ही पक्ष संयम,मर्यादा और सौन्जी का लगभग तिरस्कार कर चुके हैं। संसद केईए कार्रवाई में आ रही इस गिरावट के लिए विपक्ष और सत्ता पक्ष बराबरी से जिम्मेदार हैं। कभी-कभी तो लगता है की संसद सदस्य हों या सदस्य के साथ ही मंत्री सदन में आने से पहले ही सदन में हंगामा या ड्रामा करने  जा मन बनाकर आते हैं। संसदीय कार्य करने की तैयारी न सरकार की दिखाई देती है और न विपक्ष की।

संसद संसदीय कार्यों के लिए बनी ह।  देश के जव्व्लंत मुद्दों पार विमर्श कर रस्ते खोजने के लिए बनी है किन्तु दुर्भाग्य से संसद में यही सब कार्य नहीं हो रहे है।  सरकार का अपना एजेंडा है और विपक्ष का अपना एजेंडा। देश का कोई एजेंडा नजर नहीं आता।  मुझे आशंका ही नहीं बल्कि पक्का यकीन है की हमारी सरकार संसद में तमाम लंबित विधायी कामकाज बिना बहस के ध्वनिमत से ही कराएगी। क्योंकि सदन में बहस करना ,कराना कठिन है और ध्वनिमत से काम करना आसान। सरकार पिछले दस सा से संसद को ध्वनिमत से ही चलने की कोशिश करती रही है l 

@ राकेश अचल

भाजपा का टेसू और देश का भविष्य

 

शीर्षक पढ़कर न हसिये और न भ्रमित  होइए। बात भाजपा के टेसू की ही कर रहा हूँ ।  टेसू एक लोक नायक है ,बाद में अपने कथित अड़ियलपन कोई वजह से कहावत बन गया। आजकल हर राजनीतिक दल में एक न एक टेसू है ,लेकिन इनमें भाजपा के टेसू जैसा अड़ियल टेसू किसी और दल का नहीं है।  भाजपा  'अपने  पुरषार्थ ,किस्मत या जुगाड़ से तीसरी बार सत्ता में है। भाजपा की सरकार लंगड़ी है लेकिन उसका अपना टेसू जैसा पहले अड़ता था,वैसे ही आज भी अड़ा है।

भाजपा आजकल किसी की परवाह नहीं करती ।  न संसद की ,न विपक्ष की,न अदालत की और न अपने सहयोगी दलों की ।  भाजपा को परवाह है तो अपने खुले-छिपे एजेंडे की। भाजपा देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती है इसलिए उसने पूजास्थलों की यथास्थिति को कायम रखने वाले क़ानून को बदलने का निश्चय कर लिया है ,ताकि देश में स्थित मुस्लिम समाज की छह लाख मस्जिदों और दरगाहों को खोदकर उनके नीचे दबे कथित मंदिरों को बाहर निकाला जा सके। आपको बता दें कि ' प्लेसेज आफ वर्शिप एक्ट ' को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अनेक जनहित याचिकाएं लंबित हैं ,लेकिन   सुप्रीम कोर्ट  चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा है कि जब तक इस मामले पर केंद्र सरकार का जवाब दाखिल नहीं हो जाता, तब तक इस पर सुनवाई नहीं होगी।

 मजे की बात ये है कि कोर्ट के नोटिस के बावजूद  केंद्र सरकार ने अब तक जवाब दाखिल नहीं किया है,  सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि जवाब जल्द दाखिल किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगली सुनवाई तक नई याचिका दायर की जा सकती है , उन्हें रजिस्टर भी  नहीं किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की उस मांग को ठुकरा दिया है जिसमें उन्होंने कहा था कि देश की अलग-अलग अदालतों में इससे जुड़े जो मामले चल रहे है उनकी सुनवाई पर रोक लगाई जाए। मामले की अगली सुनवाई 17 फरवरी 2025 को होगी। इस मामले की सुनवाई विभिन्न अदालतों में दायर कई मुकदमों की पृष्ठभूमि में होगी, जिनमें वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद और संभल में शाही जामा मस्जिद से जुड़े मुकदमे शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश  संजीव खन्ना ने केंद्र को जवाब दाखिल करने के लिए 4 हफ्ते का समय दिया और कहा कि केंद्र के जवाब दाखिल करने के बाद जिन्हें जवाब दाखिल करना हो वे 4 हफ्ते में जवाब दाखिल कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि हम केंद्र के जवाब के बिना फैसला नहीं कर पाएंगे, और हम केंद्र सरकार का इस मामले में पक्ष जानना चाहते हैं। मुख्य न्यायाधीश ने ने यह भी कहा कि विभिन्न कोर्ट जो ऐसे मामलों में सुनवाई कर रही हैं वे सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई तक कोई भी अंतिम आदेश जारी नहीं करेंगी और न ही सर्वे पर कोई आदेश देंगी।

भाजपा के मस्जिद खोदो के अघोषित अभियान में पूजास्थलों से जुड़ा मौजूदा काननों सबसे बड़ी बाधा है इसलिए भाजपा ने छद्म तरीकों से इस कानून के प्रावधानों के खिलाफ अदालत की शरण भी ली है। इस बारें में सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं लंबित हैं, जिनमें से एक याचिका अश्विनी उपाध्याय ने दायर की है। उपाध्याय ने उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की धाराओं 2, 3 और 4 को रद्द किए जाने का अनुरोध किया है। याचिका में दिए गए तर्कों में से एक तर्क यह है कि ये प्रावधान किसी व्यक्ति या धार्मिक समूह के पूजा स्थल पर दोबारा दावा करने के न्यायिक समाधान के अधिकार को छीन लेते हैं। भाजपा इस कानून के  मामले में  मौजूदा सीजेआई को चंद्रचूड़ बनाना चाहती है।

भाजपा जिस तरह से पूजा स्थलों के लिए बने कानून को बदलना चाहती है उसी तरह ' एक देश,एक चुनाव ' का नया क़ानून भी बनाना चाहती है ,भले ही शेष देश इसके लिए तैयार हो या न हो। समूचे विपक्ष के विरोध के बावजूद  केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 'एक देश, एक चुनाव' विधेयक को मंजूरी दे दी है। इससे पहले सितंबर में कोविंद समिति की रिपोर्ट को मंजूरी दी गई थी जिसमें कहा गया है कि एक साथ चुनाव की सिफारिशें को दो चरण में कार्यान्वित किया जाएगा। पहले चरण में लोकसभा और विधानसभा चुनाव और दूसरे चरण में स्थानीय निकाय चुनाव होंगे।

आपको याद दिला दूँ कि  माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र  दामोदर दास मोदी ने सबसे पहले 2019 में 73 वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर एक देश एक चुनाव के अपने विचार को आगे बढ़ाया था। उन्होंने कहा था कि देश के एकीकरण की प्रक्रिया हमेशा चलती रहनी चाहिए। 2024 में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भी प्रधानमंत्री ने इस पर विचार रखा था। हालाँकि ये विचार पूर्व में ही ये देश ख़ारिज कर चुका है ,लेकिन भाजपा का टेसू इस मुद्दे पर अड़ा है सो अड़ा है।  

एक देश एक चुनाव की बहस 2018 में विधि आयोग के एक मसौदा रिपोर्ट के बाद शुरू हुई थी। उस रिपोर्ट में आर्थिक वजहों को गिनाया गया था। आयोग का कहना था कि 2014 में लोकसभा चुनावों का खर्च और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों का खर्च लगभग समान रहा है। वहीं, साथ-साथ चुनाव होने पर यह खर्च 50:50 के अनुपात में बंट जाएगा।अपनी  ड्राफ्ट रिपोर्ट में विधि आयोग ने कहा था कि साल 1967 के बाद एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया बाधित हो गई। आयोग का कहना था कि आजादी के शुरुआती सालों में देश में एक पार्टी का राज था और क्षेत्रीय दल कमजोर थे। धीरे-धीरे अन्य दल मजबूत हुए कई राज्यों की सत्ता में आए। वहीं, संविधान की धारा 356 के प्रयोग ने भी एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया को बाधित किया।

 अब देश की राजनीति में बदलाव आ चुका है। कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की संख्या काफी बढ़ी है। वहीं, कई राज्यों में इनकी सरकार भी है। भाजपा क्षेत्रीय दलों के चक्रव्यूह को तोडना चाहती है। इस समय देश के भाजपा शासित राज्यों की संख्या लगभग 12  है शेष 17  राज्यों में या तो क्षेत्रीय दलों की सरकारें हैं या मिलीजुली सरकारें। भाजपा एक साथ चुनाव कराकर  पूरे देश पर अपना एक क्षत्र राज करना चाहती है। संयोग से इस समय संसद में संख्या बल का गणित भाजपा के पक्ष में है। इसलिए भाजपा न विपक्ष की परवाह कर रही है ,न संसद की और न सुप्रीम  कोर्ट की।  अब देखना है की भाजपा का टेसू कब तक अड़ा रहकर भाजपा और संघ के एजेंडे  को पूरा कर पाता है।

@ राकेश अचल

क्या सिंधिया सचमुच ' लेडी किलर ' हैं ?

कहते हैं कि पुरखों के पुण्य यदि भावी पीढ़ी के काम आते हैं तो पुरखों  के पाप भी भावी पीढ़ी को शर्मसार करते ही रहते है।  विपक्ष  के नेता राहुल गांधी की टीशर्ट पर टिप्पणी करने वाली लोकसभा में ये बात एक बार फिर साबित हुई। तृणमूल कांग्रेस के साँसद कल्याण बनर्जी ने केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया पर एक ऐसी तल्ख टिप्पणी कर दी कि  सिंधिया तिलमिला ही नहीं गए बल्कि सिंधिया के समर्थन में पूरी भाजपा ने हंगामा कर दिया। दरअस्ल बनर्जी ने सिंधिया को ' लेडी किलर '  कह दिया था। कल्याण बनर्जी ने सिंधिया पर कटाक्ष करते हुए कहा, 'आप अच्छे दिखने वाले इंसान हैं लेकिन आप खलनायक भी हो सकते हैं'. कल्याण बनर्जी यहीं नहीं रुके उन्होंने सिंधिया से कहा, 'आप लेडी किलर हो.' इसके बाद दोनों नेताओं के बीच तीखी बहस हो गयी

बहस होना थी आपदा प्रबंधन विधेयक 2024  पर।  कल्याण बनर्जी ने सरकार पर कोरोना काल में बंगाल सरकार कि साथ भेदभाव का आरोप लगाया तो केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इसका विरोध किया और यही से बहस बेपटरी हो गयी। कल्याण बनर्जी ने कहा कि सिंधिया खानदान से महाराजा हैं तो क्या सब को छोटा समझते हैं।  इसपर सिंधिया ने कहा कि आप निजी टिप्पणी कर रहे हैं।  मेरा नाम ज्योतिरादित्य सिंधिया है।  अगर मेरे परिवार के बारे में गलत बोलेंगे तो मैं बर्दाश्त नहीं करुंगा।  कोई नहीं करेगा। जबकि हकीकत ये है कि  न केवल ज्योतिरादित्य सिंधिया बल्कि उनके तमाम पूर्वज  इस अपमान को बर्दाश्त करते आ रहे हैं।  हालांकि, बवाल बढ़ता देख कल्याण बनर्जी ने अपने बयान को लेकर माफी मांगी लेकिन सिंधिया ने कहा कि वह उनकी माफी को स्वीकार नहीं करेंगे।

कल्याण बनर्जी ने हंगामे के बीच सफाई दी कि, 'मेरा इंटेंशन सिंधिया या किसी को भी हर्ट करने का नहीं था. कल्याण बनर्जी ने सॉरी कहा. इसके बाद केंद्रीय मंत्री सिंधिया खड़े हुए और कहा कि हम सब यहां राष्ट्र निर्माण में योगदान देने के लिए आए हैं।  आप नीतियों की आलोचना कीजिए लेकिन व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं करनी चाहिए. हर व्यक्ति सेल्फ रेस्पेक्ट के साथ आता है।  इन्होंने सॉरी बोला लेकिन मुझे ये माफी स्वीकार नहीं। इन्होंने देश की महिलाओं का अपमान किया है। ' कल्याण बनर्जी ने बोलना शुरू किया तो हंगामा शुरू हो गया।  हंगामे के कारण सदन की कार्यवाही  स्थगित कर दी गयी । सिंधिया अब बनर्जी को क्या सजा देंगे ,देखते रहिये क्योंकि उन्होंने बनर्जी को माफ़ नहीं कियाहै।

मुमकिन है कि  बहुत से लोग ये नहीं समझ पाए हों की बनर्जी ने सिंधिया को ' लेडी किलर ' क्यों कहा ? तो मै बता दूँ कि  बनर्जी का इशारा 167  साल पहले देश कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम  की नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की शहादत से जुड़ा है ।  तत्कालीन सिंधिया शासक ज्याजाई रॉ सिंधिया पर रानी झाँसी का साथ न देकर उनसे गद्दारी करनेका आरोप है। तब से अब तक ये आरोप सिंधिया परिवार की हार पीढ़ी को झेलना पड़ता है। हालांकि जयाजी रॉ सिंधिया की पांचवीं पीढ़ी कि प्रतिनिधि केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में शामिल होने कि बाद रानी झाँसी की समाधि पर माथा तक क्र इस कलंक को मिटने की कोशिश कर चुके हैं,लेकिन कलंक है की धुलने का,मिटने का नाम ही नहीं लेता। ये मुद्दा कभी कांग्रेस   के काम आ जाता है तो कभी तृण मूल कांग्रेस के।

सिंधिया की सांसद में तिलमिलाहट देखकर मुझे उनके ऊपर दया आ गयी । आखिर मै उसी शहर में रहता हूँ जिस शहर के सिंधिया हैं। लेकिन उनके ऊपर की गयी टिप्पणी से ग्वालियर वाले आहत हुए होंगे ,ऐसा मुझे नहीं लगता। ग्वालियर वाले भी सिंधिया को ' लेडी किलर ' का वंशज   मानते हैं,अलबत्ता खुलकर कहते नहीं हैं। 2020  तक भाजपा भी सिंधिया को ' लेडी किलर ' ही कहती और मानती थी ,किन्तु 2020  में सिंधिया के भाजपा में आने के बाद भाजपा ने इस मुद्दे को सदा -सर्वदा के लिए त्याग दिया। भाजपा की वाशिंग मशीन में सिंधिया खानदान पर लगा 167  साल पुराना गद्दारी का कलंक धुल गया। वैसी वर्तमान राजनीती में राजमाता विजया राजे सिंधिया पर और बाद में खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया पर कांग्रेस के साथ गद्दारी करने का आरोप लगाया जा चुका है। 1967  में राजमाता ने मप्र में कांग्रेस की सरकार गिरायी थी और 2020  में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी मप्र में कांग्रेस की सरकार का तख्ता पलटा था। राम जाने की सिंधिया परिवार को कब तक इस कलंक से मुक्ति मिल पायेगी ?

@ राकेश अचल

संसद में टीशर्ट ,जार्ज सोरेस और धनकड़

 

संसद में इन दिनों तमाशा ही तमाशा चल रहा है ,काम हो नहीं रहा। काम  होगा भी नहीं ,क्योंकि सरकार कहती है कि उसके पास तमाम विधेयक पारित करने के लिए पर्याप्त संख्या बल है। संसद के दोनों सदनों में जो कुछ हो रहा है उसमें से बहुत कुछ अप्रत्याशित भी है और बहुत कुछ प्रायोजित भी। संसद की गरिमा की फ़िक्र किसी को नहीं है।  यदि आप संसद की कार्रवाई देखते हों तो आपको पता होगा की संसद के दोनों सदनों में भाजपा,कांग्रेस और शेष विपक्ष के सदस्यों का आचरण कैसा है ।  संसद चलाने वालों का आचरण कैसा है ?

सबसे पहले लोकसभा की बात करें। लोकसभा में हंगामा जारी है ,क्योंकि सरकार ऐसा चाहती है ।  सरकार कांग्रेस के और विपक्ष के दूसरे दलों के सांसदों के प्रश्नों के उत्तर नहीं देना चाहती है।  संसदीय कार्यमंत्री किरेन रिजिजू को और कुछ नहीं तो विपक्ष के नेता राहुल गांधी की टीशर्ट  पर ही आपत्ति है ।  उनका मानना है कि  टीशर्ट पहनकर संसद में आने से सदन की गरिमा गिरती है। किरेन का ये तर्क आपके गले उतरता हो तो अलग बात है ,लेकिन मेरे गले तो नहीं उतरता। संसद के किसी भी सदन में अभी तक कोई ड्रेस कोड नहीं है ,क्योंकि संसद संघ की शाखा नहीं बल्कि देश भर   के अलग-अलग हिस्सों से चुनकर आने वाले जन प्रतिनिधियों का मंच है ।  सबकी अलग-अलग वेश-भूषा है। लेकिन किरेन ये नहीं समझते।

लोकसभा में ही लोकसभा के अध्यक्ष अडानी या अम्बानी का जिक्र आते ही भड़क जाते है ।  वे कहते हैं कि  अडानी या अम्बानी सदन के सदस्य नहीं है इसलिए उनका नाम सदन के भीतर नहीं लिया जा सकता ,लेकिन दूसरी तरफ लोकसभा अध्यक्ष को अमेरिका के जार्ज सोरोस का नाम लेकर कांग्रेस के नेताओं पर हमला किये जाने से कोई आपत्ति नहीं है। मुमकिन है की लोकसभा अध्यक्ष को लगता हो की जार्ज सदन के सदस्य हैं इसलिए उनके नाम का उल्लेख किया जा सकता है। सत्तारूढ़ दल विपक्ष के किसी भी आरोप पर,सवाल पर कुछ बोलने के बजाय बेसिर-पैर के मुद्दे उठाकर हर सवाल से बचने की कोशिश में लगा हुआ है ,यदि ऐसा न होता तो सदन में न राहुल की टीशर्ट पर सवाल उठते और न जार्ज सोरोस और कांग्रेस के रिश्तों पर।

अब चलिए राज्यसभा मे।  यहां तो विपक्ष ने सभापति जगदीप धनकड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर ही दिया है।  जाहिर है कि  विपक्ष के सब्र का बांध टूट गया है ,अन्यथा सभापति का इतना मान तो होता है कि  कोई उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव न लाये। सभापति सबके होते हैं, होना चाहिए ,लेकिन धनकड़ सबके नहीं हैं ,वे भाजपा के जीवनव्रती सदस्य बने रहना चाहते हैं।  वे शायद भूल गए हैं कि  वे अब बंगाल के राज्य पाल नहीं बल्कि राजयसभा के सभापति हैं। राजयसभा के सदस्य दिग्विजय सिंह ने कहा भी है कि  उन्होंने धनकड़ जैसा पक्षपाती  सभापति अपने पूरे जीवनकाल में नहीं देखा।  मै एक साधारण पत्रकार हूँ लेकिन मैंने भी धनकड़ जैसा सभापति अपने जीवनकाल में नहीं देखा।

सदन में भाजपा मणिपुर  पर चर्चा  नहीं कर रही। बांग्लादेश से बिगड़ते रिश्तों पर बहस नहीं कर रही ,उसका प्रिय विषय जार्ज सोरोस हैं।जॉर्ज सोरोस को लेकर भाजपा हमलवार है और कांग्रेस पर सोरोस से संबंध रखने का आरोप लगाया है. पार्टी ने इस मुद्दे पर चर्चा कराने की मांगकी जिससे राज्यसभा की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी. भाजपा  का कहना है कि कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी उस संगठन से जुड़ी हैं, जो सोरोस से फंड लेती हैं।  यही नहीं, पार्टी का आरोप है कि मोदी सरकार को कमजोर करने के लिए कांग्रेस ने सोरोस के साथ हाथ मिलाया है। भाजपा को पता है कि  कांग्रेस ने किस किस से हाथ मिला रखा है ,लेकिन उसे ये नहीं पता कि  मणिपुर क्यों जल रहा है ? बांग्लादेश क्यों भारत से मुठभेड़ ले रहा है ?

आप कहीं लिखकर रख लीजिये कि  भाजपा संसद के शीतकालीन सत्र को सुचारु रूप से चलने की कोई कोशिश करेगी ही नहीं और ठीकरा विपक्ष के सर फोड़कर अपनी जिम्मेदारी से बचकर निकल भागेगी। दोनों सदनों के सभापति सदन को सर्वानुमति से चलने में नाकाम साबित हो चुके है।  संसदीय कार्यमांत्रि नाकाम हो चुके हैं और प्रधानमंत्री की और से इस दिशा में कोई कोशिश की नहीं गयी है ।  वे कोशिश करेंगे भी नहीं,क्योंकि उनका विपक्ष के साथ संवाद ही नहीं है।  प्रधानमंत्री संसद छोड़कर प्रयाग में महाकुम्भ की तैयारियों का जायजा लेने पुराने अलाहबाद जाएंगे किन्तु  सदन में शांति स्थापना के लिए प्रकट नहीं होंगे।

बहरहाल सांसद में तमाशा जारी है।  राजयसभा  में सभापति धनकड़ साहब के खिलाफ भले ही विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव पारित न हो लेकिन उनके लत्ते तो लिए जायेंगे है ।  धनकड़ के लत्ते लिए जाने का मतलब है सरकार के लत्ते लिए जाना। भाजपा और पूरी सरकार की कोशिश सदन चलाने की नहीं बल्कि आईएनडीआईए गठबंधन को तोड़ने की है। सरकार ये कर भी सकती है ,क्योंकि सरकार और सरकारी पार्टी को तोड़फोड़ का पर्याप्त अनुभव है ।  पिछले दस साल छह महीने में सरकार और सरकारी पार्टी ने अनेक क्षेत्रीय दलों को तोड़ा है ,अनेक जनादेशों को खरीदा और बेचा है।

मेरी सहानुभूति विपक्ष के साथ नहीं बल्कि सत्तापक्ष के साथ है ।  प्रधानमंत्री के साथ है क्योंकि वे चाहकर भीं प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की तरह सर्वप्रिय नेता  नहीं बन पाए।  वे अपनी सरकार को सबको साथ लेकर चला भी नहीं  पा रहे हैं। वे एक लंगड़ी सरकार के प्रधानमंत्री हैं। उनके पास अपना संख्या बल नहीं है। वे बैशाखियों के सहारे सरकार चला रहे हैं। एक विकलांग सरकार के मुखिया से ज्यादा अपेक्षा करना भी उनके प्रति अन्याय है। प्रधानमंत्री   जी जितना कर पा रहे हैं उतना कम नहीं है। वे दया के पात्र हैं। क्योंकि देश का विपक्ष उनके साथ नहीं है ।  देश की अकलियत उनके साथ नहीं है।  वे टीशर्ट से नफरत करते हैं। आदि-आदि। मेरा विपक्ष से अनुरोध है कि  वो प्रधानमंत्री जिको ज्यादा परेशान न करे ।  वे 75  साल के होने वाले हैं। उन्हें महाराष्ट्र  के बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव भी जीतना है। उन्हें सदन की जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया जाये तो बेहतर है।  

राहुल गांधी की टीशर्ट पर आपत्ति और जार्ज सोरोस से कांग्रेस के रिश्तों को मुद्दा बनाने से यदि लंगड़ी सरकार का भला हो सकता है तो जरूर होना चाहिए,क्योंकि इन दोनों मुद्दों से कांग्रेस का तो कुछ बुरा होना नहीं है ।  कांग्रेस का तो जितना बुरा होना था वो हो चूका । और बचा-खुचा आने वाले दिनों में आईएनडीआईऐ के विघ्नसंतोषी  घटक खुद कर देंगे। कांग्रस सत्ता में नहीं है और 2029  तक लोकसभा में कोई माई का लाल कांग्रेस से लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद छीन नहीं सकता। जय श्रीराम

@ राकेश अचल

क्यों किसी को सुने तत्काल सुप्रीम कोर्ट ?

दुनिया में  हर कोई चमड़े का सिक्का चलाना चाहता है ,फिर चाहे वो कोई राष्ट्रपति हो, प्रधानमंत्री हो या अतीत का कोई सम्राट,कोई तुगलक या कोई और। सब जानते हैं कि ' जिंदगी न मिलेगी दुबारा '।  देश  के मुख्यन्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने भी सुप्रीम कोर्ट में तत्काल सुनवाई की आदिकालीन व्यवस्था पर रोक लगकर यही सब किया है ।  उन्होंने किसानों के मुद्दे को भी तत्काल  सुनने से इंकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से असंख्य  लोग निराश होंगे । मै भी इन्हीं में से एक हूँ।

सुप्रीम कोर्ट हर तरह से सुप्रीम है ।  मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीव खन्ना द्वारा कुछ मामलों की तत्काल सुनवाई पर   लगाईं रोक से पहले सुप्रीम कोर्ट ने अनेक मामलों को तत्काल सुना है। कोर्ट आधीरात को भी खुला है और अवकाश के दिनों में भी ।  लेकिन ये सब मुख्य न्यायाधीश के पद पर आसीन व्यक्ति के ऊपर निर्भर रहता है कि  वो किस तरह की व्यवस्था से न्याय का रास्ता प्रशस्त करे। तत्काल सुनवाई को लेकर मत भिन्नता हो सकती है। अपवादों को छोड़कर साम्य तौर पर सुप्रीम कोर्ट में तत्काल सुनवाई नहीं होना चाहिए क्योंकि माननीय सुप्रीम कोर्ट में लाखों मामले हैं जो कम से कम पांच साल से लंबित है।  पहले इन्हें सुना जाना चाहिए ,लेकिन देश में कभी-कभी ऐसे मुद्दे और मामले भी आते हैं जब उन पर तत्काल सुनवाई और फैसले जरूरी माने जाते हैं। लेकिन अब ये रास्ता फिलहाल बंद कर दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट इस मामले में समदृष्टि रखता है।  उसने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के मामले को भी तत्काल सुनने से इंकार किया था और अब किसानों के आंदोलन को देखते हुए किसानों के मामले में भी तत्काल सुनवाई से इंकार कर दिया है। अपने अधिकारों के लिए पिछले चार साल से आंदोलनरत किसान कोई 700  किसानों की बलि दे चुके हैं किन्तु उनके मामले को सुप्रीम कोर्ट यदि तत्काल सुनवाई के लायक नहीं समझता तो ये किसानों का दुर्भाग्य है ,सुप्रीम कोर्ट का नहीं।  देश में किसी किसान का बेटा शायद अब तक मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी तक नहीं पहुंचा है अन्यथा उनके मामले को तत्काल सुनने से इंकार नहीं किया जाता। इस सर्वोच्च पद पर पहुँचने के लिए भी विरासत चलती है ।  आपके पिता,चाचा या और कोई रिश्तेदार यदि न्यायिक सेवा में रहे हैं तभी आपको यहां तक पहुँचने का रास्ता मिलता है।

आपको बता दें कि  जिस तरह से दुनिया में हमारा लोकतंत्र सबसे पुराना है उसी तरह हमारी सर्वोच्च अदालत भी दूसरे देशों की अदालतों के मुकाबले सर्वशक्तिमान है।  इसके पीछे कई कारण हैं.भारत की 73 साल पुरानी अदालत कार्यकारी अधिनियमों, संसदीय क़ानूनों और संविधान में संशोधन को रद्द कर सकती है।  सुप्रीम कोर्ट के कोई तीन दर्जन न्यायाधीश  लगभग 70 हज़ार अपीलों और याचिकाओं का भार संभालते हैं और हर साल लगभग एक हज़ार फ़ैसले देते हैं। एक पुराना आंकड़ा है कि  नवंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट में 40 फ़ीसदी मामले पाँच साल से अधिक समय से लंबित थे, जबकि आठ फ़ीसदी दूसरे अन्य मामले 10 साल से अधिक समय से लंबित थे. साल 2004 में पाँच साल से अधिक समय से लंबित मामले सात फ़ीसदी थे । मामलों को ट्रायल कोर्ट में शुरू होने से लेकर सुप्रीम कोर्ट के निपटारे तक औसतन लगभग 13 साल और छह महीने लग गए. इस दौरान शीर्ष अदालत की कार्यवाही में कुल समय का एक तिहाई समय लगा जो न्यायपालिका के प्रत्येक स्तर पर औसत अवधि के समान समय है।

बहरहाल बात किसानों की है ।  किसानों के मामले पर तत्काल सुनवाई से इंकार करने से किसान भले ही विचलित हों लेकिन केंद्र सरकार ने तो सचमुच राहत महसूस की होगी। माननीय अदालत ने कहा है की उसके पास पहले से किसानों कि मामले में जनहित याचकाएँ लंबित हैं। इसलिए किसी नई याचिका पर तत्काल कोई सुनवाई नहीं हो सकती। इस मामले में सीजीआई के निर्णय पर कोई किन्तु-परन्तु नहीं कह सकता । कोई सबसे बड़ी अदालत के सबसे बड़े न्यायधीश से स्पष्टीकरण नहीं मांग  सकता। कोई उनके फैसले के खिलाफ कहीं जाकर अपील नहीं कर सकता। किसान हों या केजरीवाल ,अदालत को  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे तो एक नयी लकीर  खींचना है ।  एक नयी नजीर बनाना है। सुप्रीम कोर्ट अपना काम कर रही है। किसान अपना काम करें। कोई किसी को रोक तो नहीं रहा। सरकार भी अपना काम कर ही रही है । भले ही आज की सरकार बैशाखियों पर चलने वाली सरकार है ।

सुप्रीम कोर्ट में वकील अब किसी मामले की तत्काल लिस्टिंग और सुनवाई मौखिक नहीं करा सकते । सीजेआई संजीव खन्ना ने निर्देश दिए हैं   कि वकीलों को  इसके लिए ईमेल या लिखित आवेदन देना  होगा। दरअसल,  खन्ना साहब ने ये सब  ' ज्यूडिशियल रिफोर्म ' के लिए  'सिटिजन सेंट्रिक एजेंडे ] की रूपरेखा  के तहत किया है। सीजेआई के फैसले से किसान ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के वकील भी चकित हैं ,क्योंकि उनका धंधा भी तो इस फैसले से प्रभावित हुआ है। जस्टिस संजीव खन्ना ने 11 नवंबर को देश के 51वें चीफ जस्टिस की शपथ ली थी। राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उन्हें शपथ दिलाई थी। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ 10 नवंबर को रिटायर्ड हो चुके हैं।

सीजेआई संजीव खन्ना के तत्काल सुनवाई के मामले में दिए गाये निर्देशों पर अभी फिलहाल 13  मई 2025  तक तो पुनर्विचार नहीं हो सकता ।  अब जो भी होगा खन्ना साहब के सेवानिवृत्त होने के बाद होगा। तब तक किसान हों या केजरीवाल को इन्तजार करना होगा तत्काल सुनवाई के मामले मे।  यदि कोई वकील माननीय सुप्रीम कोर्ट को लिखित में संतुष्ट करा दे तो अदालत तत्काल सुनवाई कार भी सकती है ,लेकिन ये आसान काम नहीं है।सीजेआई संजीव खन्ना साहब के इस निर्णय से प्रभावित होने वाले कुछ भी सोचने के लिए स्वतंत्र है।  वे इस फैसले को जन विरोधी भी बता सकते है।  उसका समर्थन भी कर सकते है।  मौन भी रह सकते हैं। अदालत शायद इसका बुरा नहीं मानेगी और तत्काल इसे अवमानना का मामला भी नहीं मानेगी। वैसे आपको याद रखना चाहिए की हमारे देश का सर्वोच्च न्यायालय किसानों के मामले में सरकार को और सरकार के मामले में किसानों को भी लताड़ चुका है /  

@ राकेश अचल

ममता के मन और है ,जनता के मन और

हाल के आम चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगियों के दांत खट्टे करे वाले आईएनडीआईए गंठबंधन में भी खटास पैदा होती दिखाई दे रही है ।  संसद के शीत सत्र में इंडिया गठबंधन के घटक दल बिखरे -बिखरे नजर आ रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो सुश्री ममता बनर्जी के मन की बात तो ओठों तक आए ही गयी। वे विपक्षी गठबंधन को नेतृत्व देने के लिए लालायित है, कोई उनसे कह भर दे।

देश में लगातार क्षीण हो रही कांग्रेस और चारों दिशाओं में बिख्ररे विपक्षी दलों को एकजुट करने में मिली कामयाबी एक साल में ही दम तोड़ती नजर आ रही है । विपक्षी  एकता की धुरी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की  क्षमताओं को लेकर सवाल खड़े किये जाने लगे है।  इसका सीधा अर्थ है कि इंडिया गठबंधन के दलों में राहुल की नेतृत्व क्षमता पर यकीन कम हो रहा है।  ऐसे में यदि राहुल ने अपने आपको न बदला तो आईएनडीआईए गठबंधन की नीति और नेता दोनों बदल सकते हैं।  बदलाव की मांग बंगाल  से भी उठती दिखाई दे रही है और महाराष्ट्र से भी।
आम चुनाव में मिली सफलता के बाद आईएनडीआईए गठबंधन के नेता हवा में उड़ने  लगे थे,लेकिन पहले हरियाणा और जम्मू-कश्मीर और बाद में झारखण्ड और महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों के नतीजों ने विपक्षी गठबंधन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। एक बार ये बात फिर प्रमाणित  हो गयी कि सब कुछ होने के बावजूद आईएनडीआईए गतहबंधन के पास भाजपा को रोकने की कोई प्रभावी रणनीति नहीं है। वो आक्रामकता भी नहीं है जो भाजपा को सबक सीखा सके।  भाजपा ने जिस तरह से हरियाणा में विपक्ष के सामने परोसी हुई सत्ता की थाली छीन ली उसी तरह से महाराष्ट्र में भी विपक्षी गठबंधन का सीराजा फैला दिया।
आईएनडीआईए गठबंधन ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के उपचुनाव में कांग्रेस को भाव नहीं दिया ,तो बंगाल में ममता बनर्जी ने।  पंजाब में आम आदमी पार्टी ने मिलकर चुनाव नहीं लड़ा तो बिहार में भी गठबंधन के प्रमुख दल आरजेडी को हार का मुंह देखना पड़ा। विधानसभा उपचुनावों के नतीजे आने के बाद संसद के शीत सत्र में भी विपक्षी एकता कमजोर ही नजर आई ।  अडानी मामले पर कांग्रेस के बहिर्गमन का साथ न तृमूकां ने दिया और न समाजवादी पार्टी ने।  समाजवादी पार्टी के नेता ने तो यहां तक कह दिया कि राहुल गांधी कांग्रेस के नेता हैं हमारे नेता नहीं।
हाल के घटनाक्रम से इस बात के संकेत साफ मिल रहे हैं कि विपक्षी घटक दल राहुल के नेतृत्व में आगे का सफर तय करने के लिए तैयार नहीं है । बहुत से घटक दलों के लिए जिस आक्रामकता की दरकार विपक्ष को है वो तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी में दिखाई दे रही है। ऍन सीपी के शरद पंवार और उनकी बेटी सुप्रिया सुले भी ममता के नेतृत्व को स्वीकार करने के मूड में नजर आ रहे है।  महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में राहुल के साथ मिलाकर चुनाव लड़ी एनसीपी चुनाव नतीजों से नाखुश है। नाखुश तो शिव सेना -उद्धव गुट भी है। आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी के सुर पहले से ही बदले -बदले सुनाई दे रहे हैं।  
 इंडिया गठबंधन  के नेतृत्व पर सपा सांसद राम गोपाल यादव ने कहा कि समाजवादी पार्टी चाहती है कि . गठबंधन जारी रहे और साथ मिलकर चुनाव लड़े। गठबंधन के नेता अभी खरगे साहब हैं।  महाराष्ट्र में सपा के एमवीए छोड़ने पर उन्होंने कहा कि वहां के लोगों की ओर से जिस तरह के बयान दिए जा रहे हैं, वह नहीं दिए जाने चाहिए।महाराशिवसेना उद्धव ठाकरे गुट की ओर से छह दिसंबर के अयोध्या विध्वंस की घटना का समर्थन किए जाने को लेकर महा विकास अघाड़ी में हलचल बढ़ गई है। समाजवादी पार्टी की महाराष्ट्र प्रमुख और विधायक अबु आसिम आजमी ने गठबंधन के प्रमुख घटक शिवसेना (यूबीटी) के अयोध्या में 6 दिसंबर बाबरी विध्वंस की घटना का समर्थन किए जाने पर नाराजगी जताई है। उन्होंने कहा कि महाविकास अघाड़ी में यह लोग कांग्रेस, एनसीपी और सपा के साथ आने के बाद कह रहे थे कि वह सेकुलर हो गए हैं।अबु आजमी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव रिजल्ट का जिक्र करते हुए कहा कि जब वे चुनाव हार गए तो फिर वही पुरानी बातें दोहराने लगे हैं। अगर ऐसा ही रहा तो महाविकास अघाड़ी आगे चल नहीं पाएगा।
भाजपा और प्रधानमंत्री  माननीय नरेंद्र दामोदर  दास मोदी के प्रति लगातार हमलावर रहे  पूर्व  राजयपाल  सत्यपाल मलिक भी राहुल गांधी के नेतृत्व से हताश नजर आ रहे हैं। मलिक ने भी राहुल के बजाय  गतहबंधन के नेतृत्व के लिए ममता बनर्जी के नाम का समर्थन किया है। मलिक चाहते हैं कि इण्डिया गठबंधन को ममता बनर्जी को नेतृत्व का मौक़ा देना चाहिये ।  शरद पंवार भी दबी जुबान में ममता के नाम पर सहमत नजर आ रहे हैं।  मुझे लगता है कि  इस मुद्दे  पर इंडिया गठबंधन के तमाम  घटक दल संसद का शीत सत्र समाप्त होते ही अंतिम फैसला ले लेंगे। इस मुद्दे पर कांग्रेस ने अभी मौन साध रखा है।
 विपक्षी खेमे में मन मुटाव भाजपा के लिए जीवनदान  देने वाला हो सकता  है ,किन्तु एक बात ये भी है कि ममता बनर्जी को राहुल गांधी की तरह पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक जन समर्थन मिलने वाला नहीं है।  वे जुझारू हैं किन्तु उनकी कोई राष्ट्रीय अपील नहीं है ।  हिंदी पट्टी में तो छोड़िये  दक्षिण में भी कोई उनके  साथ  आसानी  से चलने  को राजी  हो जाएगा  ,ये कहना  कठिन  है। ममता बनर्जी ने बंगाल में तो अभी तक भाजपा को पांव  नहीं जमाने दिए हैं लेकिन वे पूरे देश को बंगाल की तरह भाजपा  के लिए चुनौती में बदल देंगी ,इसमें   मुझे संदेह  है।जो भी है विपक्ष का बिखराव देश के लोकतंत्र  की सेहत  के लिहाज  से ठीक  नहीं है। देश के हिन्दूकरण को रोकने के लिए विपक्ष  ने यदि दरियादिली से अपना नया  नेता न चुना  तो इसकी  बहुत बड़ी कीमत सभी को चुकाना होगी । कांग्रेस के लिए ये आत्मनिरीक्षण का सही  समय है।  उसे तय करना है कि वो सकल  विपक्ष के दबाब  में क्या राहुल गांधी के नेतृत्व को खारिज कर सकती है या उसे राहुल पर ही भविष्य की राजनीति करना है ?
आपको  याद होगा कि एक जमाने में समाजवादी सियासत के झंडावरदार मने  जाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आम चुनाव से ठीक पहले इंडिया गठबंधन से जान  छुड़ाकर भाजपा में शरणागत हो गए थे ।  जेपी आंदोलन कि पैदाइश नितीश  कुमार को प्रधानमंत्री के सामने दंडवत  करते  हुए पूरे देश ने देखा  है ।  जाहिर है कि वे अब भाजपा के लिए कोई चुनौती नहीं रहे ।  शरद पंवार भी उम्रदराज  हो चुके  है। अखिलेश यादव अभी भी उत्तर प्रदेश में उलझे हैं। एक राहुल गांधी हैं जिन्होंने पूरा  देश पैदल  नापा  है।  उमके  सामने पहचान  का कोई संकट  नहीं है ।  उनका  असल  संकट अपने नेतृत्व को प्रामाणिक  न बना  पाने  का है। ये चुनौती कांग्रेस कि भी है कि वो राहुल  के पीछे   चले  या और  कोई नेता तलाश  ले ? नेतृत्व के संकट से भाजपा को छोड़  आज  सभी दल  जूझ रहे हैं। जनता के मन में कौन  है ये जानने की कोशिश  कोई नहीं कर रहा ।
@ राकेश अचल 

मीडिया की स्वतंत्रता पर अमरीका से पंगा


भाजपा के महाबली होने पर अब कम से कम मुझे तो कोई संदेह नहीं रहा । भाजपा ने मीडिया कोई स्वतंत्रता के मुद्दे पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के बहाने अमेरिका पर निशाना साधा है और अमेरिका ने भी लगे हाथ भाजपा के आरोपों को निराशाजनक बताया है। मीडिया की स्वतंत्रता के मुद्दे पर अमेरिका से रार पैदाकर भारत का इरादा क्या है ,कोई नहीं जानता।

बात कल की है।भाजपा  सांसद संबित पात्रा ने  कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर विदेशी ताकतों के साथ हाथ मिलाने का आरोप लगाते हुए कहा कि ऑर्गनाइज्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट को अमेरिकी विदेश विभाग और अरबपति जॉर्ज सोरोस जैसे “डीप स्टेट” से जुड़े लोगों द्वारा वित्तीय सहायता मिल रही है। क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट  को अमेरिकी विदेश विभाग और अरबपति जॉर्ज सोरोस जैसे “डीप स्टेट” से जुड़े लोगों द्वारा वित्तीय सहायता मिल रही है। संविद पात्रा ही भाजपा के सुपात्र प्रवक्ता हैं ,वे जो भी कहते हैं ,मुझे उसे लेकर कोई संदेह  नहीं होता  क्योंकि वे हमेशा मौलिक बात करते हैं।

पात्रा अमेरिका को निशाने पर लेने से पहले शायद ये भूल गए कि अमेरिका ने हाल ही में डोनाल्ड ट्रम्प को अपना नया राष्ट्रपति चुना है जो कि  भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी के अभिन्न मित्र हैं। जो पात्रा ने कहा वो ही भाजपा का अधिकृत ब्यान है। इसीलिए अमेरिका ने भारतीय जनता पार्टी के इन आरोपों पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय व्यवसायी गौतम अडानी के खिलाफ लक्षित हमलों के पीछे अमेरिकी विदेश विभाग का हाथ है।  बीजेपी ने आरोप लगाया था कि अमेरिका देश को अस्थिर करने की कोशिश कर रहा है।  अमेरिका ने आरोपों से इनकार करते हुए कहा कि यह 'निराशाजनक' है।  अमेरिका ने कहा कि वह दुनिया भर में मीडिया की स्वतंत्रता का चैंपियन रहा है, और इन संगठनों द्वारा संपादकीय  निर्णयों को प्रभावित नहीं करता है।

संविद पात्रा अमेरिका को निशाने पर लेने से पहले वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2023 की रिपोर्ट को शायद भूल गये ।  इस रिपोर्ट में  भारत की 161  वे स्थान पर है।    180 देशों में पिछले साल भारत 150वें स्थान पर था।  उससे पिछले साल, यानी 2021 में 142वें स्थान पर. थोड़ा और पीछे जाएं, तो 2012 में 131वां स्थान था और 2002 में, जिस साल इस इंडेक्स का उद्घाटन हुआ था भारत 80वें स्थान पर था. यानी इस रिपोर्ट के मुताबिक़ तो भारत में प्रेस की आज़ादी में लगातार गिरावट हो रही है।  भारत में बीते 10  साल से स्वतंत्र मीडिया गोदी मीडिया में तब्दील हो चुका है। जो  बच गया वो सोशल मीडिया पर अपनीइ जान बचाता  फिर रहा है।

पात्रा के आरोपों के बाद अमेरिकी दूतावास के प्रवक्ता ने कहा, "यह निराशाजनक है कि भारत में सत्तारूढ़ पार्टी इस तरह के आरोप लगा रही है।  अमेरिका लंबे समय से दुनिया भर में मीडिया की स्वतंत्रता का समर्थक रहा है. अमेरिकी सरकार पत्रकारों के लिए पेशेवर विकास और क्षमता निर्माण प्रशिक्षण का समर्थन करने वाले कार्यक्रमों पर स्वतंत्र संगठनों के साथ काम करती है।  यह कार्यक्रम इन संगठनों के संपादकीय निर्णयों या दिशा को प्रभावित नहीं करता है. स्वतंत्र प्रेस किसी भी लोकतंत्र का एक अनिवार्य घटक है, जो सूचित और रचनात्मक बहस को सक्षम बनाता है और सत्ता में बैठे लोगों को जवाबदेह ठहराता है." 

चूंकि मै भारतीय मीडिया के साथ पिछले 45  साल से सक्रिय रूप से जुड़ा हों इसलिए मुझे हकीकत का पता है।  अमेरिका में भी मीडिया ने हाल के राष्ट्रपति चुनाव में जिस तरह से भूमिका अदा की है उससे जाहिर है कि  अमेरिका में भी मीडिया को ट्रम्प ने अपनी गोदी में ठीक वैसे ही बैठा लिया था जैसा कि  भारत में मोदी जी ने बना  रखा है । दुनिया के सबसे बड़े मीडिया मुग़ल ने डोनाल्ड  ट्रंप की खुलकर मदद की। भारत में तो अब ये आम बात है।

मेरी स्मृति में पिछले पांच दशक का  इतिहास   भित्ति- चित्र   की तरह अंकित है। मुझे याद नहीं आता की इससे पहले कभी   पहली बार है जब सत्तारूढ़ पार्टी ने मोदी सरकार की आलोचना करने वाली खबरों के लिए सीधे अमेरिकी सरकार पर हमला किया है। माननीय पात्रा ने दावा करते हुए कहा था कि हमारे पास सबूत हैं कि ओसीसीआरपी को 50  फीसदी फंडिंग अमेरिकी विदेश विभाग से मिलती है।  ओसीसीआरपी   अडाणी ग्रुप और सरकार के बीच रिश्तों को लेकर झूठे और बेबुनियाद आरोपों के जरिए भारत को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है।  अमेरिका को शायद नहीं पता की भाजपा किसी को भी कमजोर करने की कोशिश कर सकती है । भाजपा देश की समरसता को बर्बाद कर चुकी है। गंगा-जमुनी संस्कृति को समाप्त कर चुकी है।  राम का नाम बदनाम कर चुकी  है। भाजपा की नजर में राहुल गांधी देशद्रोही हैं।

भाजपा को अमेरिका से पहले अनेक लोग चेतावनी दे चुके है।  कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर ने गुरुवार को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को पत्र लिखकर भाजपा के संबित पात्रा द्वारा विपक्ष के नेता राहुल गांधी के खिलाफ मीडिया से बातचीत में कथित तौर पर अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करने पर गहरी चिंता व्यक्त की और सत्तारूढ़ पार्टी के नेता के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की। बिरला को लिखे अपने पत्र में टैगोर ने आरोप लगाया कि पात्रा का आचरण संसद सदस्य से अपेक्षित शिष्टाचार और नैतिकता का स्पष्ट उल्लंघन है।

भाजपा और उसके नेतृत्व वाली सरकार ने वैदेशिक मोर्चे पर अभी तक कोई ख़ास कामयाबी हासिल नहीं की है। भारत की सरकार ने अपने तमाम पड़ौसियों  से तो रिश्ते बिगाड़ लिए हैं ,अब अमेरिका की बारी है। अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जनवरी में पदभार ग्रहण कर्नेगे। तभी  पता चलेगा की वे पात्रा के आरोपों को कैसे लेते हैं ?। वैसे ट्रम्प पहले ही तमाम तरह की घुड़कियाँ दे चुके हैं। हमें उम्मीद करना चाहिए की भाजपा की सरकार और उसके नेता राहुल गांधी के साथ ही भारत के तमाम मित्रों के बारे में बोलने से पहले संयम का इस्तेमाल करेगी। भाजपा को समझना चाहिए की भारत और दूसरे देशों के रिश्ते दस-पांच साल में नहीं बनते ,इन्हें बंनाने में एक उम्र गुजर जाती है।

 प्रेस की आज़ादी का मतलब किसी राजनीतिक, आर्थिक, कानूनी और सामाजिक हस्तक्षेप से स्वतंत्र रहते हुए और बिना किसी शारीरिक या मानसिक खतरे के पत्रकारों का इंडिविजुअल या सामूहिक रूप से सार्वजनिक हित में खबरों को सेलेक्ट करना, प्रोड्यूस करना और प्रसार करना.होता है। लेकिन भारत में मानता कुछ और है।  यहां मीडिया की स्वतंत्रता की कीमत गौरी लंकेश जैसों को अपनी जान से हाथ धोकर चुकाना पड़ती है। रवीश कुमार को अपनी नौकरी गंवाकर चुकाना पड़ती है।

@ राकेश अचल

संसद में नोटों की गड्डियों का रहस्य

भारतीय संसद हर मामले में दुनिया की दूसरी सांसदों से अलग है ,अनूठी है ,विशिष्ट है ।  हमारी संसद में प्रदर्शनकारी   भी घुस सकते हैं ,आतंकी भी हमला कर सकते हैं और सांसद भी नोटों की गड्डियां लहरा सकते हैं।  विधेयकों को फाड़ना तो आम बात है। संसद के शीत सत्र में जिस दिन किसान आंदोलन पर,संविधान  पर चर्चा होना थी उसे नोटों की गद्दियों ने धूमिल कर दिया। सभापति श्रीमान जगदीप धनकड़ साहब ने सदन की कार्रवाई शुरू होते ही ये बम फोड़ा।

धनकड़ साहब की मासूमियत पर मेरा दिल तो हमेशा से फ़िदा है ।  वे कहते हैं कि उन्होंने सोचा कि जिस किसी सांसद के ये नोट होंगे वो आएगा और अपना  दावा जतायेगा,किन्तु जब कोई नहीं आया तब उन्होंने इस मामले की जांच करने के लिए कहा।  धनकड़ साहब की सूचना सत्ता पक्ष के लिए एक नया हथियार बन गया ।  सत्ता पक्ष ने विपक्ष को आड़े हाथ लिया तो विपक्ष के नेता श्रीमान मल्लिकार्जुन खड़गे खड़े हो गए ।  उन्होंने कहा की जब तक मामले की जांच के निष्कर्ष नहीं आ जाते तब तक कोई किसी को कैसे दोषी ठहरा सकता है।  सत्ता पक्ष के नेता जेपी नड्ढा साहब ने खड़गे पर माले की जांच को दबाने की कोशिश बताया तो बात और बिगड़ गयी।
मजे की बात ये है कि जैसे ही सीट नंबर 222  का जिक्र हुआ ,वैसे ही इस सीट पर बैठने वाले कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी का बयान आ गया ।  अभिषेक जी कहते हैं कि वे तो केवल पांच सौ का एक नॉट लेकर सदन जाते हैं।  उनकी सीट पर नोटों की ये गड्डियां कहाँ से आयीं ,वे नहीं जानते।  सिंधवी का कहना है कि वे तो सदन में केवल तीन मिनीट ही रुके ,क्योंकि उनके आते ही सदन की कार्रवाई समाप्त हो गयी थी। अब सवाल ये है की किसे सही माना जाए  ? अभिषेक जी को या धनकड़ जी को। सच्चाई का पता तो जांच के बाद ही चल सकता है। अब सब जानते हैं की नोटों के न पंख होते हैं और न पैर ।  वे सदन में न उड़कर आ सकते हैं और न चलके । मतलब ये कि उन्हें कोई न कोई तो लेकर आय।  या तो वे अभिषेक सिंधवी के साथ आये या इन नोटों को कोई और लेकर आया और ये नोट जानबूझकर अभिषेक की सीट पर रखे गए  ताकि सिंघवी को बढ़नाम किया जा सके। या फिर सदन में किसानों के मुद्दे पर कार्रवाई को टाला जा सके।
आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि इससे पहले सदन में नोट चलकर कभी नहीं आये ।  उन्हें लाया गया ।  2008  में भाजपा सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते,अशोक अर्गल और महावीर सिंह करोड़ नोटों की गड्डियां लहराते हुए सदन में आये थे ।  आरोप था कि तत्कालीन सरकार को गिरने से बचाने के लिए किसी अज्ञात व्यक्ति ने उन्हें ये नोट दिए।  इस मामले में भी जांच हुई और नतीजा वो ही चूं-चूं का मुरब्बा ही निकला। संसद में पिछले साल परदरसशंकारियों ने सदन के भीतर जाकर प्रदर्शन किया था ,लेकिन क्या हुआ ? कुछ नहीं। संसद आम जनता के लिए सुरक्षा के नाम पर अलभ्य है लेकिन फिर भी वहां कुछ न कुछ होता ही रहता है।
हमारी संसद आखिर संसद न हुई ,किसी गरीब की जोरू हो गयी। कोई जब मन करे तब संसद को अपने ढंग से चलाने   की कोशिश  करता है। कभी सदन हंगामें डूबा रहता है तो कभी वहां हाथापई की नौबत आए जाती है ।  कभीयहां नोट लहराए जाते हैं तो कभी भगवान की तस्वीरें दिखा सकता है। संसद फैशन परेड का रैम्प तो पहले से है ही। सदन में गिने   चुने सांसद हैं जो सच्चे मन से संसदीय कार्रवाई में हिस्सा लेने की तैयारी करआते है।  बाकी के लिए तो संसद हाजरी लगाने की जगह रह गयी है।
देश चाहता है की राजयसभा में नोटों  की गड्डियां मिलने का रहस्य केवल रहस्य न रहे बल्कि उजागर हो ताकि भविष्य में इस तरह की अशोभनीय घटनाओं को रोका जा सके।
@ राकेश अचल      

क्या घुड़की देना भी भूल गया भारत ?

बात हिन्दू और मुसलमान की नहीं है ,मानवाधिकारों की है, जिनका खुल्ल्म-खुल्ला उललंघन पड़ौसी देश बांग्लादेश में हो रहा है। संयोग ये है कि  जो लोग बांग्लादेश की सत्ता के निशाने पर हैं वे हिन्दू हैं। बांग्लादेश के हिन्दू बांग्लादेश के हिन्दू हैं ,भारत के नही।  वे वहां अल्पसंख्यक हैं और लगातार बहुसंख्यक समाज की ज्यादती के शिकार हो रहे हैं।  हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों से भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज विचलित है। बांग्लादेश की सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा है किन्तु हिंदूवादी भारत की सरकार मौन है। सरकार लगता है अब हिन्दू राष्ट्र होने के मुगालते के बाद पड़ौसियों को घुड़की देना भी भूल गयी है।

बांग्लादेश में आज हो रहे घटनाक्रम को देखकर मुझे 53  साल पहले की वे घटनाएं याद आ रहीं हैं जो बांग्लादेश बनने के पहले पाकिस्तान के बंगाल में हो रही थीं।  उस दौर में भी तत्कालीन पाकिस्तानी सत्ता ने बंगालियों पर बर्बरता की तमाम हदें तोड़ दीं थीं। पीड़तों का आर्तनाद सुनकर भारत की तत्कालीन सरकार ने उस समय जो कदम उठाये थे ,उनके बारे में आज की सरकार सोच भी नहीं सकती,क्योंकि तब भारत के पास एक फील्ड मार्शल मानेक शा थे,एक प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी थीं। आज न हमारे पास कोई  फील्ड मार्शल है और न कोई इंदिरा।

ये हकीकत है कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर ज्यादती बांग्लादेश का आंतरिक मामला है लेकिन जब इस घटनाक्रम से भारत का जन मानस उद्वेलित है तो भारत की सरकार को कुछ तो सोचना चाहिए।  मुझे लगता है कि जिस तरह से भारत ने अघोषित रूप से बांग्लादेश की निर्वासित प्रधानमंत्री शेख हसीना को भारत में शरण दी हुई है उसी तरह उसे बांग्लादेशी हिन्दुओं पर ज्यादतियों को लेकर बांग्लादेश की मौजूदा अस्थाई सरकार पर दबाब डालकर हिंसा को रोकने  के   प्रयास करना चाहिए। जरूरी नहीं है कि इसके लिए बांग्लादेश पर हमला किया जाये ,लेकिन बांग्लादेश को घुड़की तो दी ही जा सकती है।

  भारत में चौतरफा धर्मध्वजाएं लेकर मार्च करने वाले मठाधीशों को भी इस मुद्दे पर सरकार पर दबाब डालना ही चाहिए ।  बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं के ऊपर जिस तरह का अत्याचार हो रहा है ,वो साफ़ तौर पर सत्ता पोषित है। ये सब करने की हिम्मत बांग्लादेश की सत्ता में कहाँ से आयी होगी इसका अनुमान लगाया जाना चाहिए। असहिष्णुता और नफरत की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती। हमारे यहां पिछले एक दशक से जिस तरह से सत्तापोषित नफरत फल-फूल रही है ठीक वैसे ही हालात बँगला देश में हैं ,और शायद इसी लिए भारत सरकार इस मामले में हस्तक्षेप करने का नैतिक बल खो चुकी है।

हैरानी की बात ये है कि भारत की जो सरकार रूस और यूक्रेन युद्ध को रोकने के लिए दखल कर सकती है वो सरकार बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर हो रही ज्यादतियों के मामले में दखल नहीं दे पा रही है। भारत के प्रधानमंत्री अफ़्रीकी देशों की यात्रा कर चुके हैं लेकिन तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद बांग्लादेश जाने की जरूरत उन्होंने नहीं समझी।  मुमकिन है कि उन्हें आशंका हो कि बांग्लादेश उनसे अपेक्षित सौजन्यता न दिखाए। बांग्लादेश में इस समय सत्ता की बागडोर जिन हाथों में है उन हाथों में शांति का नोबुल पुरस्कार भी आ चुका है ,फिर भी वे हाथ अपने यहां साम्प्रदायिक हिंसा को नहीं रोक पार रहे हैं।

सम्प्रदायक हिंसा बांग्लादेश में हो या किसी और देश में आसानी से रोकी भी नहीं जा सकती ।  हमारे यहां मणिपुर में तो साम्प्रदायिक हिंसा को डेढ़ साल हो चुके हैं।  जब हम मणिपुर को नहीं सम्हाल पा रहे तो कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि बांग्लादेश अपने यहां अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर होने वाली हिंसा को सम्हाल  लेगा ? साल भर पहले तक बांग्लादेश भारत का प्रिय मित्र था। बांग्लादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती शेख हसीना तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के समय उनके शपथ ग्रहण में शामिल होने दिल्ली भी आयीं थीं , उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी को बांग्लादेश आने का निमंत्रण भी दिया था ,लेकिन वे शेख हसीना के प्रधानमंत्री रहते बांग्लादेश जा नहीं पाये । अब तो बांग्लादेश जाने कि कोई सूरत भी नहीं है।

बांग्लादेश में शेख हसीना का तख्ता पलट होने के बाद  अंतरिम सरकार  से भारत की बन नहीं पायी ,उलटे  भारत-बांग्लादेश के संबंधों में कड़वाहट शुरू हुई और अब चिन्मय कृष्ण दास की गिरफ़्तारी के बाद दोनों देशों के बीचजो काफ़ी तल्ख़ कूटनीतिक भाषा का इस्तेमाल हो रहा है.

बीते दिनों बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के कानूनी सलाहकार आसिफ नज़रुल  तो कह चुके हैं की ''भारत को ये समझना होगा कि ये शेख़ हसीना का बांग्लादेश नहीं है.'। अब पता नहीं की भारत आसिफ नजरुल की बात समझा है या नहीं ? बावजूद इसके भारत सरकार ने शेख हसीना को बांग्लादेश कि मौजूदा सरकार के सुपुर्द नहीं किया है। रार की  असली वजह शायद यही है।

हमें याद रखना चाहिए कि भारत और बांग्लादेश चार हज़ार किलोमीटर से ज़्यादा लंबी सीमा साझा करते हैं और दोनों के बीच गहरे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रिश्ते रहे हैं। बांग्लादेश की सीमा भारत और म्यांमार से लगती है लेकिन उसकी 94 फ़ीसदी सीमा भारत से लगती है. इसलिए बांग्लादेश को 'इंडिया लॉक्ड' देश कहा जाता ह।  इतना ही नहीं बीते कुछ सालों में बांग्लादेश, भारत के लिए एक बड़ा बाज़ार बनकर उभरा है. दक्षिण एशिया में बांग्लादेश भारत का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है और भारत एशिया में बांग्लादेश का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है.

वर्ष 2022-23 में बांग्लादेश भारत का पांचवां सबसे बड़ा निर्यात बाज़ार बन गया. वित्त वर्ष 2022-23 में दोनों देशों का द्विपक्षीय व्यापार 15.9 अरब डॉलर का था।

अब भारत के सामने एक ही विकल्प है कि भारत बांग्लादेश को अपना भूभराकर   स्वरूप दिखा। हड़काये ,पाबंदियां लगाए। अंतर्राष्ट्रीय दबाब बनाये ,अन्यथा बांग्लादेश भी पाकिस्तान के बाद भारत का एक स्थाई दुश्मन बन जायेगा ।  बांग्लादेश की मौजूदा सत्ता का झुकाव इस समय भारत के बजाय चीन की और है ,तय है कि बांग्लादेश इसी लिए भारत के दबाब में आ नहीं रहा है।भारत को बांग्लादेश के मौजूदा शासकों को अतीत की याद दिलाना चाहिए। यदि भारत की मौजूदा सरकार बांग्लादेशी हिन्दुओं की हिमायत करने में नाकाम रही तो आप तय मान्य की वो भारत के हिन्दुओं के दिलो दिमाग से भी उतर जाएगी। पहले से विदेश नीति के मोर्चे पर हिचकोले खा रहे भारत के लिए ये एक मौक़ा है जब वो अपना वजूद प्रमाणित कर सकता है।  देखिये आने वाले दिनों में मोदी युग में बांग्लादेशी हिन्दू राहत की सांस ले पाते हैं या नहीं ?

@ राकेश अचल

देश में उलटी बहती गंगा ,कहीं गोली तो कहीं दंगा

 

देश में गंगा उलटी बह  रही है। पूरब से पश्चिम तक ,उत्तर से दक्षिण तक जहाँ -जहाँ गंगा है उलटी ही बह  रही  है। उलटी बहने  वाली गंगा शिव की जटाओं से निकली गंगा नहीं है ।  उलटी बहने वाली गंगाओं के भगीरथ  अलग-अलग हैं।  यूपी में अलग तो पंजाब में अलग ।  दिल्ली में अलग तो असम में अलग। आप कहेंगे कि देश में तो एक ही गंगा है ,जो हमेशा सीधी बहती है और पतित पावन है। लेकिन मै जिन गंगाओं की बात कर रहा हूँ वे पतित -पावन नहीं है। वे दलदली गंगाएं हैं।

सबसे पहले यूपी में  योगी आदित्यनाथ की गंगा की बात करते है।  योगी जी के सूबे में सम्भल का दंगा हो गया। दंगा शांत भी हो गया ,लेकिन सम्भल को विपक्षी नेताओं के लिए ' कील ' दिया गया है। कोई भी विपक्षी नेता सम्भल नहीं जा सकता और सत्ता पक्ष के नेता सम्भल जाते नहीं हैं ,क्योंकि दंगा करने का आरोप तो उन्हीं के ऊपर है। यानि यहां योगी जी सत्ता के बूते लोकतंत्र की गंगा का प्रवाह बदलने पर आमादा हैं।  क़ानून और व्यवस्था के नाम पर राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव ,कोई भी सम्भल नहीं जा सकता।  सबको सम्भल के बाहर खींची ' योगी रेखा ' के बाहर रोक दिया गया है। सवाल ये है कि  योगी जी की सरकार विपक्ष के सँभल जाने से इतनी खौफजदा क्यों है ?

यूपी से आगे बढिये पंजाब चलते हैं।  पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार   है।  यहां स्वर्ण मंदिर के बाहर अकाली दल के तनखैया घोषित सुप्रीमो सुखबीर सिंह के ऊपर एक दूसरा सरदार रिवाल्वर से फायर करता है ।  सुखबीर को उसके अंगरक्षक बचालेते हैं ,लेकिन पंजाब के मुख्यमंत्री मान साहब के मान पर कोई असर नहीं पड़ता। आप समझ सकते हैं कि  पंजाब में मान सरकार का इकबाल कितना बुलंद है ? पंजाब  में कोई भी आतंकी ,कभी भी किसीको अपना निशाना बना सकता है। यानि उलटी गंगा यहां भी बह रही है। पंजाब में बहती उलटी गंगा में यहां का अमन-चैन सब बहा जा रहा है।

पंजाब के बाद चलिए महाराष्ट्र।  महाराष्ट्र में जो कुछ होता है वो पूरे राष्ट्र को भौंचक  कर देता है ।  यहां कब दीवान को दरोगा और दरोगा को दीवान बना दिया जाये ,ये कोई नहीं जानता।  विधानसभा चुनावों के बाद महाराष्ट्र में कल तक जो दरोगा थे वे दीवान बना दिए गए और जो दीवान थे उन्हें दरोगा बना दिया गया। ' डिमोशन ' और  ' प्रमोशन ' की उलटी गंगा देश में जिस तरह महाराष्ट्र में बहती है और कहीं नहीं बहती। महाराष्ट्र ने ये सब हमारे मध्यप्रदेश से सीखा है।  मध्यप्रदेश में वर्षों पहले इस तरह का प्रहसन हो चुका है।  हमारे यहां भी दरोगा  रहे स्वर्गीय बाबूलाल गौर साहब, शिवराज सिंह चौहान के दरोगा बनने के बाद उनके दीवान बनने को राजी हो गए थे। यानि सियासत में किसी का कोई मान-अपमान या जमीर -समीर नहीं होता। मूषक को शेर बना दीजिये या शेर को मूषक ,किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

उलटी गंगा असम में भी बह रही है।  असम में सरकार ने कहा है कि  अब असम के होटल,रेस्टोरेंट्स और सार्वजनिक स्थानों पर गौमांस नहीं बिक सकता। यानि आपको गौमांस खाना है तो किसीके घर में जाकर खाइये । असम सरकार ने गौमांस के इस्तेमाल पर रोक नहीं लगाईं है ,केवल कुछ खास जगह प्रतिबंधित की है ।  यानी आप ' गुड़ खा सकते हैं लेकिन आपको गुलगुलों से नेम करना होगा। असम के मुख्यमंत्री लगता है यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से प्रेरणा  हासिल कर  रहे हैं। यूपी में भी इस तरह केअसफल  प्रयोग किये जा चुके हैं। यानि गंगा को असम में भी उलटा बहाने कीकोशिश की जा रही है ।  

असम सरकार के इस फैसले पर कांग्रेस,एआईयूडीएफ  और जदयू ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी है।  जदयू ने कहा, इस फैसले से समाज में तनाव बढ़ेगा।  केंद्र और बिहार में बीजेपी की सहयोगी पार्टी जदयू नेता केसी त्यागी ने कहा, भारत का संविधान सबको खाने-पीने की आजादी देता है. होटल या सार्वजनिक स्थान पर बीफ बैन का हम समर्थन नहीं करते।  इससे समाज में तनाव फैलेगा जो पहले से ही काफी ज्यादा है. कांग्रेस नेता राशिद आल्वी ने कहा, गोहत्या पर पूरे देश में पाबंदी लगनी चाहिए।  लेकिन असम के सीएम को ये अब क्यों याद आया है? क्या बीजेपी गोवा, पूर्वोत्तर समेत उन सभी राज्यों में गो हत्या पर पाबंदी लगाएगी, जहां उनकी सरकार है।

जब गंगा उलटी बहती है तो आचार्य प्रमोद कृष्णन जैसे पूर्व कांग्रेसी भी आय-बांय बोलने लगते है।  राहुल गाँधी से दुखी होकर मोदी जी की शरण में आये आचार्य प्रमोद कृष्णन कहते हैं की राहुल गांधीको यदि सम्भल के हिन्दुओं की इतनी ज्यादा चिंता है तो वे बांग्लादेश क्यों नहीं जाते ? आचार्य जी ये मश्विरा राहुल गांधी को तो दे सकते हैं लेकिन योगी,मोदी और शाह को नहीं दे सकते।  हिम्मत नहीं है बेचारे के पास। सचबोलने के लिए हिम्मत की जरूरत पड़ती है ,जो आजकल भाजपा में   शायद किसी नेता के पास बची नहीं है।

मणिपुर में तो गंगाजू डेढ़ साल से उलटी बह रहीं हैं।  केंद्र की सरकार ने कभी गंगा के प्रवाह के उलटे होने की फ़िक्र नहीं की ।  यदि की होती तो मणिपुर के मुख्यमंत्री अभी तक हटा न दिए जाते  ! मणिपुर में प्रधानमंत्री जी हों या कोई और दुसरे भाजपा नेता न खुद वहां जाते हैं और न राहुल गाँधी को वहां जाने से रोकते है।  राहुल गांधी राख हो रहे मणिपुर में दो मर्तबा हो आये लेकिन मोदी जी को एक बार भी मणिपुर जाने का ख्याल नहीं आया। आये भी कहाँ से ,उन्हें मणिपुर से ज्यादा यूक्रेन और रूस की फ़िक्र खाये जा रही है।  वे बांग्लादेश भी तो नहीं जा रहे जबकि वहां का अल्पसंख्यक हिन्दू संकट में है।  मोदी जी ब्राजील ,रूस , निकारागुआ और डोमेनिका जा सकते हैं ,किन्तु मणिपुर हो या ढाका नहीं जा सकते।

बहरहाल हमें भगीरथ की गंगा के साथ ही हर सूबे की गंगा के प्रवाह की फ़िक्र है।  इसीलिए हम लगातार गंगा के उलटे बहने पर सभी को आगाह करते है।  नेताओं कोभी और जनता को भी। यदि गंगाओं को उलटा बहने से न रोका गया तो हमारे पास जो कुछ   गहना-गुरिया बचा है वो सब बह जाएगा। लोकतंत्र में गंगा सीधी ही बहना चाहिए ।  गंगा का यमुना और सरस्वती के साथ संगम भी होना चाहिए।  अन्यथा सब कुछ तबाह हो सकता है। गंगा को उलटा बहने से सिर्फ इस देश की जनता ही रोक सकती है ,शर्त ये है कि  वो खुद को जनार्दन माने और लोकतंत्र का मान-मर्दन करने वालों को सजा दे।

@ राकेश अचल

सदन में करवटें बदलतीं आत्माएं

आपने यदि गौर किया हो तो आप पाएंगे कि आजकल संसद के दोनों सदनों में पीठासीन प्रमुखों की आत्माएं अचानक करवटें बदलती दिखाई दे रहीं हैं ।  सदन चलने को लेकर दुनिया भर  से मिल रही लानत मलानत के बाद लोकसभा हो या राज्य सभा अब केंद्रीय मंत्रियों को लताड़ मिलती दिखाई दे रहीी है।  लोकसभा में यदि स्पीकर श्री ओम बिरला जी यदि संसदीय कार्यमंत्री पर बिफरे तो राजयसभा कि  सभापति माननीय धनकड़ जी ने  सदन कि बाहर एक कार्यक्रम में कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान की क्लास ले ली।

मंगलवार लोकसभा में शून्यकाल शुरू होने से पहले कार्यसूची में तमाम मंत्रियों के नाम से अंकित दस्तावेज संसदीय कार्य राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल की ओर से प्रस्तुत किए जाने पर स्पीकर ने नाराजगी जताई. उन्होंने कहा कि जिन मंत्रियों के नाम कार्यसूची में हैं, वे सदन में उपस्थित रहें. दरअसल, सदन में  प्रश्नकाल खत्म होने के बाद दोपहर 12 बजे कार्यसूची में अंकित जरूरी कागजात संबंधित मंत्रियों की ओर से सदन के पटल पर रखे जाते हैं।  हालांकि अगर कोई मंत्री सदन में उपस्थित नहीं रहता तो उनकी तरफ से संसदीय कार्य राज्य मंत्री इन्हें प्रस्तुत करते आये हैं। संसद में बहुत दिनों बाद स्पीकर को बदली हुई मुद्रा में देश ने देखा है।  लगता है कि  अब उन्हें उनकी आत्मा कचोटने लगी है। अहसास करने लगी है कि  वे केवल सत्तापक्ष के लिए ही नहीं बने हैं।
   सदन में जरूरी प्रपत्र पेश किए जाने के दौरान वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री जितिन प्रसाद के नाम पर अंकित एक दस्तावेज को संसदीय कार्य राज्य मंत्री मेघवाल ने रखा. इस पर स्पीकर बिरला ने कहा कि उद्योग मंत्री पीयूष गोयल सदन में बैठे हैं और उन्हें दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए कहा जाना चाहिए था। इसके बाद गृह राज्य मंत्री बंडी संजय कुमार अपने नाम से अंकित दस्तावेज सदन के पटल पर रख रहे थे. उन्हें कठिनाई होने पर अन्य मंत्री उनकी मदद करते नजर आए. इस पर लोकसभा अध्यक्ष  ने इन मंत्रियों से कहा, ‘‘आप एक-दूसरे को मत समझाओ.’’ फिर स्पीकर ने संसदीय राज्य मंत्री मेघवाल से ही संबंधित दस्तावेज प्रस्तुत करने को कहा।
लोकसभा की ही तरह राज्य सभा के बाहर एक समारोह में  सभापति जयदीप धनकड़ अचानक किसान आंदोलन  का प्रश्न आते ही केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान पर पिल पड़े। किसान आंदोलन को लेकर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने मंगलवार को सीधे कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान से कई सवाल किए।उन्होंने शिवराज की ओर इशारा करते हुए कहा, कृषि मंत्री जी, आपका एक-एक पल भारी है। मेरा आपसे आग्रह है और भारत के संविधान के तहत दूसरे पद पर विराजमान व्यक्ति आपसे अनुरोध कर रहा है कि कृपया करके मुझे बताइए कि किसान से क्या वादा किया गया था? और जो वादा किया गया था, वह क्यों नहीं निभाया गया ? आपको बता  दें  कि  देश कि किसान  एक बार फिर आंदोलित  हो रहे हैं।
धनकड़ का रूप विपक्ष के किसी संसद जैसा था ।  उन्होंने सवाल किया कि -' वादा निभाने के लिए हम क्या कर रहे हैं? बीते साल भी आंदोलन था, इस साल भी आंदोलन है। कालचक्र घूम रहा है। हम कुछ नहीं कर रहे हैं।धनखड़ ने मुंबई में केंद्रीय कपास प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान  के शताब्दी समारोह के में ये बातें कहीं। कार्यक्रम में शिवराज भी मौजूद थे।हालांकि, उन्होंने उपराष्ट्रपति के सवालों का जवाब नहीं दिया।आपको याद होगा कि  किसान आंदोलन को लेकर पूर्व में भाजपा के वरिष्ठ नेता और राजयपाल रहे सत्यपाल मलिक भी आग -बबूला हो चुके हैं और इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा है ,लेकिन धनकड़ को पता है कि  अब उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है ।  भाजपा उन्हें राष्ट्रपति तो बनाने से रही।
दुर्भाग्य ये है कि  संसद को हंगामे से उबरने के लिए हुई बैठक भी बहुत ज्यादा कामयाब नजर नहीं आयी,क्योंकि मंगलवार को संसद में अडानी का नाम आते ही फिर हंगामा हुआ था। कांग्रेस के गौरव गोगोई द्वारा अडानी और मोदी का नाम लेते ही सत्तापक्ष बिफर गया था और उसने गौरव के शब्दों को सदन की कार्रवाई से निकलवाकर ही चैन की सांस ली थी। कांग्रेस ने इस मुद्दे  पर लोकसभा की कार्रवाई का न सिर्फ बहिष्कार किया ब्लल्कि बैनर लेकर ये संदेश भी दिया की मोदी जी और अडानी जी एक हैं।  कांग्रेस के इस कदम का साथ हालाँकि उनके सहयोगी समाजवादी दल और तृणमूल कांग्रेस ने नहीं दिया।
मुझे लगता है कि  यदि लोकसभा और राजयसभा का संचालन निष्पक्षता से किया जाये तो सदन की तस्वीर बदल सकती  है।  लोकसभा अध्यक्ष को भी मान लेना चाहिए कि  ये उनका दूसरा और अंतिम कार्यकाल है,वे चाहें तो इसका इस्तेमाल अतीत में बिगड़ी अपनी छवि को सूधारने में कर सकते हैं। वे अगर संगमा बनना चाहें तो बन सकते है।  वे यदि सोमनाथ चटर्जी बनना चाहें तो उन्हें कोई नहीं रोक सकता । यहां तक कि  प्रधानमंत्री मोदी जी भी। कोई उन्हें पदच्युत करने की स्थिति में नहीं है। यही बात राज्य सभा के सभापति माननीय धनकड़ साहब पर लागू होती है।  उन्होंने बंगाल  के राजयपाल के रूप में ही नहीं बल्कि राजयसभा के सभापति के रूप में भी भाजपा के लिए जितना समर्पण किया जा सकता था, वे कर चुके है।  अब उन्हें अपनी छवि सुधारने के लिए  सदन  के  बाहर ही नहीं बल्कि भीतर भी विपक्ष  के साथ होई सत्तापक्ष की कान -कुच्ची [ कान खिंचाई ] करना चाहिए।
 देश ने एक लम्बे अरसे से लोकसभा और राजयसभामें पहले की तरह किसी भी मुद्दे पर कोई गंभीर बहस नहीं हुई है ।  ऐसी बहस जिसे देखने -सुनने के लिए देश दो-चार घंटे टीवी  स्क्रीन के सामने बैठने को मजबूर हो। ये तीसरी  लोकसभा है जिसमें  कोई सारगर्भित  बहस होती नजर नहीं आय। पिछले  दस  साल  में प्रधानमंत्री जी भी जितनी  बार सदन में बोले वे राष्ट्रनायक के रूप में नहीं बोले ।  उन्होने हमेशा किसी विपक्षी नेता की तरह भाषण दिया और असली विपक्ष की बखिया  उधेड़ने  की कोशिश की ।मुझे एक बार भी नहीं लगा  कि  वे देश को चलाने  के लिए विपक्ष की किसी भूमिका को सराहने का माद्दा रखते हैं। उन्हें विपक्ष अपना  सनातन  शत्रु  नजर आता  है।  वे पंडित  जवाहर  लाल नेहरू  की तरह  आज के विपक्ष में बैठे  किसी अटल  बिहारी  बाजपेयी  को अपना आशीर्वाद नहीं दे सकते।  बहरहाल जो परिवर्तन फिलहाल दिखाई दे रहा है वो सुखद है। भगवान ,अल्लाह करे  की आने वाले दिन सदन के लिए शुभ हों।
@ राकेश अचल  

मोदी जी की मैहर मैसी की फिल्म पर

 


प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी की पूरी कैबिनेट को ' द  साबरमती रिपोर्ट ' फिल्म देखते हुए अखबारों में छपी तस्वीर ने दिल खुश कर दिया।  हमें गर्व है कि हमारे प्रधानमंत्री अकेले नहीं बल्कि पूरी कैबिनेट के साथ बैठकर कोई फिल्म भी देखते हैं। मोदी जी की दिनचर्या बेहद व्यस्त रहती है ।  वे 24  में से 18  घंटे काम करते हैं,ऐसे में यदि वे कोई फिल्म देखने के लिए वक्त निकालते हैं तो ये हैरानी का नहीं बल्कि गौरव का विषय है। विपक्षी खामखां मोदी जी के फिल्म देखने को लेकर हलाकान हो रहे हैं।

मै इस बात के लिए अपने देश के देशी प्रधानमंत्री जी का हमेशा कायल रहा हूँ कि  वे जो भी करते हैं खुल्ल्म  -खुल्ला करते हैं।  छिपाते नहीं हैं।  उनके मन में मेल बिलकुल नहीं है ।  वे निर्मल चित्त नेता हैं,नायक हैं।  उन्होंने यदि विक्रांत मैसी की फिल्म ' द  साबरमती रिपोर्ट देखी तो उसे छिपाया नहीं, बल्कि इसकी इत्तला बाकायदा अपने एक्स खाते पर भी दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सहयोगी एनडीए सांसदों के साथ 'द साबरमती रिपोर्ट' फिल्म देखी. उन्होंने  फिल्म बनाने वालों की सराहना की।  मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फिल्म की तारीफ में लिखा, "मैं 'द साबरमती रिपोर्ट' फिल्म के निर्माताओं की सराहना करता हूं और इस प्रयास के लिए उन्हें बधाई देता हूं."

प्रधानमंत्री जी के फिल्म देखने के शौक को लेकर कांग्रेसियों के पेट में दर्द हो रहा है ।  दर्द होना स्वाभाविक है ,क्योंकि कांग्रेस के नेता कभी फिल्म देखने जाते ही नहीं। कांग्रेस के नेता और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को तो भारत जोड़ो यात्रायें करने से ही फुरसत नहीं मिलती,और अगर मिल भी जाये तो वे धूं-धूंकर जल रहे मणिपुर के राहत शिविरों की तरफ दौड़  लगाते हैं। मणिपुर को लेकर संसद में हंगामा करते हैं और करते हैं। वे क्या जानें की फ़िल्में  देखना सेहत के लिए कितना लाभप्रद होता है ? राहुल बाबा को मोदी जी से इस मामले में प्रेरणा  लेना चाहिए। जस उम्र में लोग माला जपने  लगते हैं ,उस उम्र में मोदी जी फ़िल्में देख रहे हैं।

कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी को पता नहीं क्यों मोदी जी को फिल्म देखकर ऐसा लगता है कि  -' रोम जल रहा है और नीरो बंशी बजा रहा है।  वे   सरकार पर हमला करते हुए कहते हैं  कि  प्रधानमंत्री श्री  मोदी जी  मणिपुर और जीडीपी पर ध्यान नहीं दे रहे, फिल्म देख रहे है। पंडित प्रमोद तिवारी जी को शायद ये मालूम नहीं है कि  न तो मणिपुर रोम है और न मोदी जी नीरो । तिवारी जी को शायद ये भी नहीं पता कि  मोदी जी बंशी नहीं बल्कि डंका वादक है। वे डंका बजाते हैं। वैसे  भी  फिल्म देखना हर नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है।  प्रधानमंत्री को भी ये अधिकार हासिल है ।  मणिपुर जाना न जन्मसिद्ध अधिकार है और न ड्यूटी।  अब किसी को मणिपुर नहीं जाना तो नहीं जाना ।  किसी को फिल्म देखना है तो देखना है ।  पसंद अपनी -अपनी ,ख्याल अपना-अपना।

' द  साबरमती रिपोर्ट ' देखकर देश के गृहमंत्री श्री अमित शाह साहब भी गदगद नजर आये ।  वे इतने गदगद मणिपुर हिंसा की किसी रिपोर्ट को देखकर गदगद नजर नहीं आये। गृह मंत्री अमित शाह ने भी फिल्म 'द साबरमती रिपोर्ट' की सराहना की और इसे गोधरा के सच को उजागर करने वाला बताया है।  उन्होंने एक्स पर लिखा, "इस फिल्म ने देशवासियों को गोधरा कांड के असल सच से परिचित कराया और बताया कि कैसे एक पूरा इकोसिस्टम इसे छिपाने में लगा था ?  आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी और एनडीए सांसदों के साथ इस फिल्म का आयोजन किया गया है, और मैं पूरी फिल्म टीम को इस प्रशंसनीय प्रयास के लिए बधाई देता हूं.।

सब जानते हैं कि देश की संसद में विपक्ष लगातार हंगामा कर रहा है ,ऐसे में रिलेक्स होने के लिए फिल्म देखना जरूरी है। विपक्ष को भी कोई न कोई फिल्म जरूर देखना चाहिए। विपक्ष यदि मणिपुर में जारी हिंसा का सच और उसके पीछे जारी ईकोसिस्टम को उजागर करना चाहता है तो उसे भी कोई एकता कपूर खोजना चाहिए,किसी विक्रम मैसी की तलाश करना चाहिए ताकि वो भी कोई ' द मणिपुर रिपोर्ट ' नाम से फिल्म बना सके। ऐसी फिल्म को कांग्रेस शासित राज्यों में करमुक्त भी किया जाना चाहिए ,लेकिन दुर्भाग्य कि  कांग्रेस को कुछ करना आता ही नहीं है सिवाय गाल बजाने के। अब गाल बजाकर  तो आप माननीय मोदी जी का ,डॉ  भागवत जी का ,माननीय नड्ढा जी का ,माननीय अमित शाह जी का मुकाबला कर नहीं सकते। ये सभी दिग्गज  गाल बजाने में भी कांग्रेस की टीम  से मीलों  आगे  हैं। दअरसल कांग्रेस को कुछ करना  आता ही नहीं है ।  कांग्रेस न गड़े मुर्दे उखड़वा  पाती  है और न किसी पूजाघर  का सर्वे करने के लिए अदलात की शरण ले पाती है। आजकल  तो कांग्रेस दंगे  करना  भी भूल  गयी  है ,ये पुण्य  कार्य  भी भाजपा  को ही कराना  पड़  रहा है।

कांग्रेस केवल ख्वाब देखती है ,देश को धर्मनिरपेक्ष बनाने का ।  कांग्रेस को न तो डॉ भागवत की तरह देश में घटती प्रजनन डॉ की चिंता है और न समाज के वजूद को समाप्त होने की चिंता। यदि होती  तो कोई कांग्रेसी  डॉ भागवत की तरह देश की जनता  से तीन  बच्चे  पैदा  करने की मार्मिक  अपील  न करती   ? योगी आदित्यनाथ की तरह बटोगे तो कटोगे का नारा न देती  ? केवल संविधान की लाल कितबिया लेकर घूमने से थोड़े ही संविधान और लोकतंत्र बचता है। संविधान बचाने के लिए,लोकतंत्र बचाने के लिए फिल्म देखना पड़ती है। पता नहीं इन  कांग्रेसियों को अक्ल कब आएगी ? वे कब फिल्म देखेंगे ? मुझे  पक्का  यकीन है कि जब  तक  कांग्रेसी अपने नेता राहुलगांधी  के साथ बैठकर  किसी लाइब्रेरी  हाल  में कोई फिल्म नहीं देखेंगे ,तब  तक  उन्हें  कामयाबी नहीं मिलने वाली ।  कांग्रेसियों को यदि ' द साबरमती रिपोर्ट ' अच्छीनहीं लगती तो कांग्रेसी इसी विषय पर बनी बीबीसी की फिल्म  मंगाकर देख सकते हैं,हालाँकि देश में इस फिल्म का प्रदर्शन  सरकार  ने होने नहीं दिया था। इस फिल्म में भी गोधरा  कांड  का सच दिखाया  गया  था।

मेरा तो सुझाव  है कि संसद में जब -जब हंगामा होता है और सदन  की कार्रवाई  स्थगित  की जाती  है तब-तब खाली  समय  में सांसदों  को कोई न कोई फिल्म दिखाई  जाना चाहिए। फिल्म देखना स्वास्थ्य  कि लिए बहुत  फायदेमंद  क्रिया  है। कसरत करने से भी ज्यादा । योग-ध्यान से भी ज्यादा फायदेमंद  है । मै तो एक  जमाने  में दिन  में फिल्मों  के तीन शो  देखता  था। इसी का नतीजा  है कि  मै आज भी स्वस्थ्य  और प्रसन्न  हूँ। अब देश को ऐसी किसी तस्वीर  की अपेक्षा  नहीं करना चाहिए की जिसमें   मोदी जी अपनी  पूरी कैबिनेट कि साथ  इम्फाल  के राजभवन  में मणिपुर को बचाने कि लिए बैठक  करते नजर आएंगे । उन्हें पहले  फिल्म देखने से तो फुरसत मिले ?

@ राकेश अचल

मोहन की भागवत का नया अध्याय ' बच्चे बढ़ाओ '

 

वेदव्यास की श्रीमद् भागवत कथा में 18 हजार श्लोक, 335 अध्याय व 12 स्कंध हैं , लेकिन आरएसएस के डॉ मोहन भागवत की कथा में न श्लोकों की संख्या तय है और न अध्यायों की और न स्कन्धों की। ये लगातार घटते-बढ़ते रहते हैं। डॉ मोहन भागवत की भगवत कथा भारतीय संविधान की  तरह लचीली है।  डॉ भगवत ने अपनी भागवत में एक नया अध्याय जोड़ा है ' तीन बच्चे पैदा करो' का  । अब उनके इस नए अध्याय से पूरा देश आल्हादित भी है और चिंतित भी।

संघ प्रमुख कहने को पशु चिकित्स्क हैं किन्तु वे मानवता से ओतप्रोत हैं।  उन्हें पशुओं से ज्यादा मनुष्यों की फ़िक्र रहती है ।  आजकल उन्हें बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अल्पसंख्यक होने की चिंता सता रही है इसीलिए उन्होंने देश की जनता से आव्हान किया है कि हर कोई  कम से कम ३ बच्चे तो पैदा करें ही , अन्यथा उनका वजूद मिट जाएगा। डॉ भागवत को शायद पता नहीं है कि  आजकल बच्चे पैदा करना तो दूर शादी करना भी कठिन हो गया है ।  देश में बच्चों से ज्यादा बेरोजगारों की सख्या बढ़ रही है और बरोजगारों की शादी आसानी से नहीं होती।ये बेरोजगार तीन बच्चे पैदा करने के राष्ट्रयज्ञ में कैसे शामिल हो सकते हैं ?

गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम चरित मानस में लिखा है कि  -' पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे अचरहिं ते नर न घनेरे।' डॉ भागवत इन्हीं घनेरे नरों में से एक हैं।  डॉ भागवत को नहीं पता कि  शादी करना और विवाह  करना कोई आसान काम नहीं है।  यदि होता तो वे खुद  शादी न कर लिए होते। उनके मित्र प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी ने तो शादी की भी लेकिन भाग खड़े हुए ।  वे  तीन क्या ,एक बच्चा भी इस देश को नहीं दे पाए। समाज की संरचना में इस लिहाज से डॉ भागवत और  डॉ मोदी जी का कोई योगदान नहीं है। इसलिए उन्हें ये कहने का भी अधिकार नहीं है कि  लोग तीन बच्चे पैदा करें। इस देश को ' हम दो, हमारे दो ' का नारा देने वाली देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने शादी भी की और दो बच्चे भी देश सेवा के लिए दिए। यानि भागवत और मोदी के मुकाबले इंदिरा गाँधी का योगदान ज्यादा महत्वपूर्ण है।

सवाल ये है कि  डॉ भागवत को आबादी बढ़ने की सलाह देने की जरूरत आखिर पड़ी क्यों ? क्या डॉ भागवत समाजशास्त्री हैं ? क्या डॉ भागवत अर्थशास्त्री हैं ? नहीं हैं।  वे पशु चिकित्स्क हैं। इसलिए उन्हें आबादी के बारे में बात करने की न पात्रता हासिल है और न किसी ने उन्हें ये अधिकार दिया है। देश की  आबादी 2024  में 144  करोड़ थी ,जो भविष्य में घटना नहीं है ,भले ही देश की प्रजनन दर घटकर २ प्रतिशत ही क्यों न हो जाये। आबादी बढ़ाने की फ़िक्र उन देशों की हो सकती है जिन देशों में लगातार आबादी घट रही है ।  भारत तो जनसंख्या के मामले में विश्व चैम्पियन है। नंबर वन  ,यानि  चीन से भी आगे। इस पर भी डॉ भागवत कह रहे हैं कि  देश का काम केवल दो बच्चों से चलने वाला नहीं ही ,कम से कम 3  बच्चे हर विवाहित जोड़े को पैदा करना चाहिए।

संघ प्रमुख डॉ मोहन भागवत लगता है अपने प्रधानमंत्री के हम उम्र प्रचारक तो हैं किन्तु  हम ख्याल  बिलकुल नहीं है।  उन्हें माननीय प्रधानमंत्री जी की योजनाओं और चिंताओं का पता नहीं है ,यदि पता होता तो वे आबादी बढ़ाने की बात ही न करते । शायद किसी ने डॉ भागवत को ये नहीं बताया कि  इस देश में आज भी सरकार को 85  करोड़ लोगों को पेट भरने के लिए मुफ्त में अनाज देना पड़ रहा है।  यानि इस आबादी के एक बड़े हिस्से के पास न दो जून  की रोटी है,न रहने को घर ,चिकित्सा  ,शिक्षा और दीगर सुविधाओं की तो बात ही दूर है। ऐसे में यदि लोगों ने आबादी बढ़ाना शरू कर दी तो ये मुफ्तखोरों की तादाद और नहीं बढ़ा देंगे !

देश को तीन बच्चे पैदा करने का ' गुरु मंत्र ' देने वाले डॉ भागवत को अपना समान्य ज्ञान बढ़ाना चाहिए ,क्योंकि  शायद वे नहीं जानते कि  दुनिया की कुल आबादी का कोई 18  फीसदी हिस्सा तो अकेले भारत के पास है।  डॉ भागवत को पशु चिकत्सा शिक्षा के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ की वो रिपोर्ट नहीं पढ़ाई गयी होगी जिसके मुताबिक दुनिया में दुनिया के 1  अरब गरीबों में से 23  करोड़ से ज्यादा लोग अकेले भारत में रहते हैं। इनमें  भी बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा यानि आधी है। डॉ भागवत को ये नहीं पता कि  इस वर्ष की रिपोर्ट संघर्ष के बीच गरीबी पर केंद्रित है, क्योंकि 2023 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे अधिक संघर्ष हुए और युद्ध, आपदाओं और अन्य कारकों के कारण अब तक की सबसे अधिक संख्या यानी 11.7 करोड़ लोगों को अपने घरों को छोड़कर विस्थापित होना पड़ा। इनमें मणिपुर की विभीषिका में बेघर हुए लोग शामिल नहीं हैं।

मुझे पता नहीं है कि  डॉ भागवत ने आधुनिक जनसंख्या विज्ञान किस विश्व विद्यालय से पढ़ा है ?  मोहन भागवत ने कहा, "आधुनिक जनसंख्या विज्ञान कहता है कि जब किसी समाज की जनसंख्या (प्रजनन दर) 2.1 से नीचे चली जाती है, तो वह समाज दुनिया से नष्ट हो जाता है जब कोई संकट नहीं होता है।  इस तरह से कई भाषाएं और समाज नष्ट हो गए हैं. जनसंख्या 2.1 से नीचे नहीं जानी चाहिए। " मै डॉ मोहन भागवत के ज्ञान को कोई चुनौती देना नहीं चाहता,मेरी हैसियत भी नहीं है चुनौती देने की । लेकिन एक बालक बुद्धि के हिसाब से मै भी एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी  की तरह जानना चाहता हूँ  कि वह अधिक बच्चे पैदा करने वालों को क्या देंगे. क्या वह अधिक बच्चे पैदा करने वालों के बैंक खातों में 1500 रुपये देंगे ? क्या वह इसके लिए कोई योजना लाएंगे ? बहरहाल 3 बच्चे पैदा करने के मश्विरे के बारे में मै तो सोचने से रहा क्योंकि मेरे यहां तो फुलस्टाप लग चुका है ,लेकिन जो अभी इस उद्यम में लगे हैं ,वे सोचें ,समझें और खुद कोई निर्णय करे।  डॉ भागवत की बातों में बिना समझे न आ जाएँ ,अन्यथा उनका तीसरा बच्चा भी मुमकिन है उस कतार में बैठा हो जिसे पांच किलो मुफ्त का अनाज खाकर जीवित रहना पड़ता है।

@ राकेश अचल

हमारी संसद :नौ दिन चले अढ़ाई कोस

 

भारतीय लोकतंत्र सबसे पुराना है।  पुरानी हैं इसकी रिवायतें,लेकिन इसी लोकतंत्र की रक्षा केलिए बनी हमारी संसद आजकल चल नहीं पा रही ।  लोकसभा अध्यक्ष हों या राज्य सभा अध्यक्ष वे अपने-अपने सदनों को सुचारु रूप से चलाने में नाकाम साबित हुए है ।  सरकार और वविपक्ष के बीच का गतिरोध है की टूटने का नाम ही नहीं ले रहा ।  देश की राजधानी दिल्ली प्रदूषण की चपेट में है और देश की संसद हंगामे में डूबी है। संसद को हंगामे से उबारने की कोई गंभीर कोशिश नजर नहीं आ रही। संसद को देखकर लगता है कि -' नौ दिन चले अढ़ाई कोस' वाली कहावत शायद इसके लिए ही बनी है।
आपको याद है कि  संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत 25 नवंबर को हुई थी।दोनों सदनों में  4 दिन में सदन की कार्यवाही सिर्फ 40 मिनट चली। हर दिन औसतन दोनों सदन (लोकसभा और राज्यसभा) में करीब 10-10 मिनट तक कामकाज हुआ।अब संसद 2  दिसंबर  के बाद ही बैठेगी। लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष ने अडाणी और संभल मुद्दा उठाया। विपक्षी सांसद कार्यवाही के दौरान लगातार हंगामा करते रहे। स्पीकर ने कई बार उन्हें बिठाने की कोशिश की, मगर विपक्ष शांत नहीं हुआ।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा- सहमति-असहमति लोकतंत्र की ताकत है। मैं आशा करता हूं सभी सदस्य सदन को चलने देंगे। देश की जनता संसद के बारे में चिंता व्यक्त कर रही है। सदन सबका है, देश चाहता है संसद चले। लेकिन संसद नहीं चली और  लोकसभा के साथ ही  राज्यसभा की कार्यवाही सोमवार 2 दिसंबर तक स्थगित कर दी गई।बिरला साहब ने सदन चलाने कि लिए क्या कोशिश की ये किसी को नहीं पता ,क्योंकि उन्होंने शायद कोई कोशिश की ही नहीं। की होती तो उसका कुछ न कुछ नतीजा जरूर निकलता।वे सदन चलने से ज्यादा सदन की कार्रवाई स्थगित करने में दक्ष दिखाई देते हैं। यही बात राज्य सभा में माननीय धनकड़ साहब पर लागू होती है।  
मुझे लगता है कि  संसद हंगामें  की वजह से   नहीं बल्कि सत्तापक्ष की वजह से नहीं चल रहा ।  सत्तापक्ष संसद को चलाना ही नहीं चाहता,यदि सत्तापक्ष की मंशा संसद को चलाने की होती तो सत्तापक्ष दरियादिली दिखाता और विपक्ष जिन मुद्दों पर बहस की मांग कर रहा है ,उन सभी मुद्दों पर बहस करता ,लेकिन ऐसा हो नहीं रहा ।  विपक्ष के सामने सत्ता पक्ष का टेसू अड़कर खड़ा हुआ है। टेसू को कोई समझा-बुझा नहीं पा रह।  सदन चलाने  के लिए जिम्मेदार लोग कायदे-क़ानून से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा को लेकर अड़े हुए हैं, अन्यथा सदन का संचालन करने वाले चाहें तो सदन चल सकता है।
 दुर्भाग्य ये है कि  संसद का संचालन पीठासीन अधिकारियों के विवेक से नहीं बल्कि सत्तापक्ष के निर्देशों चालने की कोशिश की जा रही है ,और यही समस्या की असल जड़ है।  संसद जब तक सत्तापक्ष की कठपुतली बनी रहेगी,तब तक इसे चलाना नामुमकिन है।  सत्ता पक्ष को अपनी हठधर्मी आज नहीं तो कल छोड़ना पड़ेगी।  सवाल ये है कि  विपक्ष द्वारा उठाये जाने वाले मुद्दों पर बातचीत करने से कौन सा पहाड़ टूटने वाला है ?
लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुलगांधी  ने बुधवार को संसद के बाहर कहा था कि अडाणी पर अमेरिका में 2 हजार करोड़ की रिश्वत देने का आरोप है। उन्हें जेल में होना चाहिए। मोदी सरकार उन्हें बचा रही है।तो राहुल के इस आरोप पर सरकार को सदन में जबाब देने में क्या परेशानी है। ? आखिर सरकार ने सदन से बाहर इस मामले में अपना पक्ष सार्वजनिक किया ही है  न ? मोदी सरकार ने शुक्रवार को इस मामले को लेकर सदन के बाहर सफाई देते हुए  कि अमेरिका द्वारा अभी तक किसी तरह का अनुरोध नहीं किया गया है। सरकार के विदेश मंत्रालय ने कहा कि अडाणी ग्रुप की कंपनियों के खिलाफ अमेरिका की कार्रवाई में सरकार की किसी भी तरह की कोई भूमिका नहीं है।यही सब तो सरकार को संसद के भीतर कहना है ,लेकिन सरकार ऐसा नहीं कह रही ,क्योंकि इसकी मांग विपक्ष ने की है।
दुर्भाग्य की बात ये है कि  सदन के नेता प्रधानमंत्री  श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी को जो सदन में कहना है वो सब वे आम सभाओं में कह रहे है।  प्रधानमंत्री जी का ये आचरण उनकी अहमन्यता का प्रतीक है ।  वे सदन के चलते विवादित मुद्दों पर सदन के बाहे बोलकर सदन की अवमानना कर रहे हैं,लेकिन उन्हें समझाये कौन ? सदन के पीठासीन अधिअक्रियों में से किसी में इतना नैतिक  या कानूनी साहस नहीं है कि  वो प्रधानमंत्री को सदन में विवादित मुद्दों पर बोलने के लिए कहे ।  कभी-कभी लगता है कि  सदन के अध्यक्ष सदन के प्रति नहीं बल्कि सरकार के प्रति निष्ठावान हैं। अन्यथा सदन में स्पीकर के लिए चाहे प्रधानमंत्री हो या एक सामान्य संसद सब बराबर हैं।  हैरानी की बात ये है कि  संसद को लेकर सभी पक्षों का आचरण एक जैसा है ।  इधर संसद स्थगित होती है उधर प्रधानमंत्री हों या विपक्ष के नेता आम सभाएं करने निकल पड़ते हैं और उन्हें जो बातें सदन में करना चाहिए वे ही बातें वे आमसभाओं में करते हैं ।  प्रधानमंत्री जी भुवनेश्वर में गरज   रहे हैं तो राहुल गांधी वायनाड में।
राज्यसभा में विपक्षी सांसदों की लगातार नारेबाजी के बीच सभापति जगदीप धनखड़ ने कहा, इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। हम बहुत खराब मिसाल कायम कर रहे हैं। हमारे काम जनता-केंद्रित नहीं हैं। हम अप्रासंगिकता की ओर बढ़ रहे हैं। गनीमत ये है कि  अभी धनकड़ साहब केवल सदन की कार्रवाई स्थगित कर रहे है। अभी उन्होंने किसी सदस्य को डाटा-फटकारा या निलंबित नहीं किया है ,अन्यथा वे जब चाहे तब ऐसा कर सकते हैं। यही हाल लोकसभा अध्यक्ष माननीय ओम बिरला साहब का है।  वे सदस्यों की आँखों में आँखें  डालकर बात करने के बजाय दिशा निर्देशों के लिए सत्तापक्ष की और कनखियों से ताकते नजर आते हैं। और शायद यह वजह है कि  राज्यसभा में सभापति जगदीप धनखड़ और विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे  धनखड़ साहब को लाजबाब कर देते हैं। धनकड़ साहब  ने खड़गे से कहा कि हमारे संविधान को 75 साल पूरे हो रहे हैं। उम्मीद है आप इसकी मर्यादा रखेंगे। इस पर खड़गे ने जवाब दिया कि इन 75 सालों में मेरा योगदान भी 54 साल का है, तो आप मुझे मत सिखाइए।
आपको बता दें कि   संसद की कार्रवाई पर प्रति घंटे डेढ़ करोड़ रुपया खर्च होता है ,लेकिन ये पैसा जनधन है इसलिए किसी को इसकी बर्बादी की फ़िक्र नहीं है। संसद के सामनेशीतकालीन सत्र के दौरान कुल 16 विधेयक पेश किए जाने हैं। इनमें से 11 विधेयक चर्चा के लिए रखे जाएंगे। जबकि 5 कानून बनने के लिए मंजूरी के लिए रखे जाएंगे। ' वन नेशन, वन इलेक्शन ' के लिए प्रस्तावित विधेयकों का सेट अभी सूची का हिस्सा नहीं है, हालांकि कुछ रिपोर्ट्स में कहा गया है कि सरकार इसे सत्र में ला सकती है। लोकसभा से पारित एक अतिरिक्त विधेयक भारतीय वायुयान विधेयक राज्यसभा में मंजूरी के लिए लंबित है।लेकिन ये सब काम तो तब निबटे जब सदन में हंगामा  बंद  हो। सरकार तो लगता है की ये सब काम सदन में आखरी दिन ध्वनिमत से करा ही लेगी ,उसे जनमत की फ़िक्र न पहले  थी और न आगे होगी।
@ राकेश अचल  

क्या सचमुच आग से नहीं खेल रही सरकार ?

 जब किसी देश की सरकार मंजे हुए खिलाड़ी चला रहे हों तो वहां कोई भी खेल खेला जा सकता है।  सरकार जनादेश से ,जन भावनाओं से ,क़ानून से ही नहीं बल्कि ' आग ' से भी खेल रही है।  ये खेल संसद के भीतर भी जारी है और संसद के भीतर भी।  अब केवल देश की सबसे बड़ी अदालत ही इस आग को बुझाने के लिए अपनी और से ' दमकल ' बन सकती है ,अन्यथा देश आज नहीं तो कल जलेगा ही ,क्योंकि ' जमालो ' तो भूसे के ढेर में पलीता लगा ही चुकी है।

संसद   में वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक को फिलहाल बहस के लिए न रखते हुए इसकी समीक्षा के लिए बनाई गयी संयुक्त संसदीय समिति [ जे पीसी]का कार्यकाल बढ़कर यदि सरकार ने एक कदम पीछे खींचा है तो वहीं दूसरी तरफ अजमेर शरीफ दरगाह के मामले में चुप्पी साधकर एक  कदम आगे भी बढ़ा दिया है। अब इस मामले में 'सूप'  तो 'सूप' धीरेन्द्र शास्त्री जैसी ' छलनियाँ ' भी बोलने लगीं हैं ।  उनका कहना है कि अजमेर में यदि शिवालय था तो वहां दोबारा प्राण प्रतिष्ठा कराई जाएगी। आपको याद रखना होगा कि सद्भावना के भूसे के ढेर में पलीता लगाने का काम आज का नहीं बल्कि  बहुत पुराना है।

देश को लगता था कि  अयोध्या में बाबरी मस्जिद की विध्वंश और वहां भव्य राम मंदिर बनने के बाद मुस्लिम विरोधी अभियान रुक जाएगा ,लेकिन ये आशंका निर्मूल साबित हुई ।  उत्तर प्रदेश समेत भाजपा की तमाम डबल इंजिन की सरकारों ने अलग-अलग तरीके से इस अभियान को अंजाम देना शुरू कर दिय।  कभी मस्जिदों में जाने वालों को फर्जी मुठभेड़ों में मार दिया गया तो कभी उनकी बस्तियों पर बुलडोजर चला दिए गए ।  कभी किसी इबादतगाह  का सर्वे करने के नाम पर वहाँ आतंक फ़ैलाने की कोशिश की गयी ,तो कभी अल्पसंख्यकों के वक्फ बोर्ड को निशाने पर ले लिए गया।

आपको नूपर शर्मा का मामला याद है न ? दो साल पहले जो काम नूपुर शर्मा ने किया था वो ही काम आजकल अयोध्या के बाद सम्भल ,बनारस और अजमेर में दूसरे लोग कर रहे हैं। अदालतें उनका साथ दे रहीं हैं। पैगंबर मोहम्मद पर कथित टिप्पणी को लेकर भाजपा नेता रहीं नूपुर शर्मा को को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई थी। वे  अलग-अलग राज्यों मेंअपने खिलाफ  दर्ज मामलों को दिल्ली ट्रांसफर करने की अपील लेकर  सर्वोच्च न्यायलट पहुंचीं थीं।  सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा पर तल्ख टिप्पणियांकरते हुए  कहा  था कि उन्हें टीवी पर आकर देश से माफी मांगनी चाहि।  नूपुर शर्मा की पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ टिप्पणी को सुप्रीम कोर्ट ने ‘व्यथित करने वाली’ टिप्पणी करार दिया और कहा कि इस बयान के कारण ही देश में दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुईं.।  बाद में नूपुर ने तमाम ना-नुकुर  के बाद देश से ,दुनिया से माफ़ी मांगी थी ।  आजकल वे कहाँ हैं कोई नहीं जानता।

सम्भल में मस्जिद के सर्वे का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया है ।  मुमकिन है कि कल अजमेर शरीफ में खुजा मुईनुद्दीन चिश्ती साहब की दरगाह के सर्वे का मामला भी सुप्रीम कोर्ट आ जाये।  अब ये देश की सबसे बड़ी अदालत पर  है कि वो इस आग को बढ़ने से रोकती है या फिर अल्पसंख्यकों के पूजाघरों के सर्वे के मामले में फैसला देने से पहले भगवान से मार्गदर्शन मांगती है। अदालत आग से खेल रही  सरकार की मुश्कें बाँध नहीं पा रही।  हबीब गंज से लेकर काले खान की सराय तक के नाम सरकार ने बदल दिए ,लेकिन किसी अदालत ने कुछ नहीं कहा ,क्योंकि ये सरकार के अधिकार क्षेत्र का मामला मान लिया गया ,लेकिन अजमेर का मामला हबीबगंज रेलवे स्टेशन और काले खान सराय के नाम बदलने का नहीं है।

वक्फ बिल पर जमीयत उलेमा ए हिंद के अध्यक्ष सिद्दिकउल्ला चौधरी ने सरकार को आगाह  हुए कहा कि सरकार आग से खेलना बंद करे. उन्होंने कहा, “ये मुसलमानों के हक को छीनना चाहते हैं और वक्फ बोर्ड को छीनकर खाना चाहते हैं. ये प्रधानमंत्री के अंदर नहीं आता है. आग से खेलना बंद करें. हम पुरजोर तरीके से इस बिल का विरोध करते हैं. वे मुल्क का बंटवारा करना चाहते हैं. हमलोग एक होकर लड़ेंगे। जाहिर है की सरकारी पार्टी कि कार्यकर्ता सीधे ुर सर्कार पीछे से देश को गरियुद्ध की आग में धकेलना चाहती है। मणिपुर पहले से जल रहा है ,अब पूरे देश को मणिपुर बनाने की तैयारी है।  ”दरअसल सरकार नूपुर शर्मा के मामले से भी सबक नहीं ले पायी है ।  नूपुर शर्मा के मामले में कतर और दोहा के अलावा आईओसी ने भी तीखी प्रतिक्रिया जताई थी। अजमेर शरीफ के मामले में भी यही सब हो सकता है ,क्योंकि अजमेर शरीफ दुनिया भर के मुसलमानों की आस्था का केंद्र है।

 अभी वक्त है कि केंद्र सरकार आगे बढ़कर इस मामले को अपने हाथों में ले। अभी वक्त है कि देश का सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में स्वत् :संज्ञान ले और अधीनस्थ न्यायालयों को इस तरह की याचिकाओं को स्वीकार करने और सुनने तथा निर्देश देने से रोके। हमें बांग्लादेश में हिन्दुओं पर  अत्याचार के मामले में दखल देने का हक तभी बनेगा जब हम अपने देश में अल्पसंख्यक मुसलमानों के हितों,और मान सम्मान की रक्षा करते हुए दिखाई देंगे। फिलवक्त तो हमारी सरकार,हमारी सरकारी पार्टी का आचरण अल्पसंख्यक  विरोधी है।  सरकार और सरकारी पार्टी चुनावों में ' बटोगे तो कटोगे ' का नारा देकर  तो अपना असली चेहरा दिखा ही चुकी है। अब देखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट इस आग को फैलने से किस तरह रोकता है ? अजमेर की शांति भंग करने की कोशिशों को राजस्थान की पंडित भजनलाल शर्मा सरकार  तो रोक नहीं सकती। भजनलाल भी लगता है की राजस्थान को उत्तरप्रदेश की तर्ज पर चलना चाहते हैं।

आपको एक बात  और बता दूँ की यदि अजमेर की दरगाह सर्वधर्म की मिसाल न होती तो देश में कोई हिन्दू अपने बच्चों का नाम मुंशी अजमेरी या अजमेरी लाल न रखता। जो लोग अजमेर को मुस्लिम नाम या संज्ञा समझते हैं उन्हें मै बता दूँ कि यह नगर सातवीं शताब्दी में अजयराज सिंह नामक एक चौहान राजा द्वारा बसाया गया था। इस नगर का मूल नाम 'अजयमेरु' था। सन् 1365 में मेवाड़ के शासक, 1556 में अकबर और 1770 से 1880 तक मेवाड़ तथा मारवाड़ के अनेक शासकों द्वारा शासित होकर अंत में 1881 में यह अंग्रेजों के आधिपत्य में चला गया। अजमेर में अकेले ख्वाजा साहब की ही दरगाह नहीं है जैन मंदिर भी है,और हिन्दू मंदिर भी ,दुनिया वाले  अजमेर को भारत का मक्का, अंडो की टोकरी, राजस्थान का हृदय  भी मानते है।  सरकार और सरकारी पार्टी इसे माने या न माने क्या फर्क पड़ता है ? भाजपा को अपने पितृ पुरुष स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी से कुछ सीखना चाहिए। आज कि प्रधानमंत्री को अल्पसंख्यकों कि मन में भरोसा जगाने कि लिए अटल जी की तरह अजमेर जाकर ताजा मसले को हल करना चाहिए।  

@ राकेश अचल

अब अजमेर वाले ख्वाजा साहब की बारी

देश की संसद तीन दिन से ठप्प है ,लेकिन ये कोई खबर नहीं है ।  खबर ये है कि देश की 6  लाख मस्जिदों और दरगाहों पर कब्जा हासिल करने के महा अभियान के तहत अब अजमेर वाले ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह हम हिन्दुओं के निशाने पर है। अजमेर की ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में संकट मोचन महादेव मंदिर होने का दावा करते हुए अजमेर सिविल कोर्ट में लगाई गई याचिका को कोर्ट ने सुनने योग्य माना है। यह याचिका हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता की ओर से याचिका लगाई गई।

आपको पता ही होगा   कि  राजस्थान राज्य के अजमेर में स्थित ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है। यह दरगाह, गुलाबी शहर जयपुर से करीब 135 किलोमीटर दूर, चारों तरफ अरावली की पहाड़ियों से घिरे अजमेर शहर में स्थित है। अजमेर शरीफ की दरगाह के नाम से यह पूरे देश में प्रसिद्ध है।इस दरगाह से सभी धर्मों के लोगों की आस्था जुड़ी हुई है। इसे सर्वधर्म सद्भाव की अदभुत मिसाल भी माना जाता है। ख्वाजा साहब की दरगाह में हर मजहब के लोग अपना मत्था टेकने आते हैं। ऐसी मान्यता है कि जो भी ख्वाजा के दर पर आता है कभी भी खाली हाथ नहीं लौटता है, यहां आने वाले हर भक्त की मुराद पूरी होती है।
देश के भाग्यविधाता प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी का तो पता नहीं, लेकिन ख्वाजा की मजार पर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू,भाजपा  के दिग्गत नेता और पूर्व प्रधानमंत्री  स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी, देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी,अमेरिका कि पूर्व राष्ट्रपति  बराक ओबामा समेत कई नामचीन और मशहूर शख्सियतों ने अपना मत्था टेका है। आप इस फेहरिश्त में मेरा नाम भी बाबस्ता कर सकते हैं ।  मैं भी दो मर्तबा इस दरगाह पर सपरिवार माथा टेक आया हूँ,हालाँकि मैं पक्का सनातनी हूँ।    ख्वाजा के दरबार में अक्सर बड़े-बड़े राजनेता एवं अभिनेता  आते रहते हैं  और अपनी अकीदत के फूल पेश करते हैं एवं आस्था की चादर चढ़ाते हैं। अपने अनेक फिल्मों में इस दरगाह को देखा होगा।
तकरीबन 559  साल पुरानी इस दरगाह को लेकर अजमेर के न्यायालय ने वाद को स्वीकार करते हुए दरगाह कमेटी, अल्पसंख्यक मामलात व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण धरोहर को नोटिस जारी करने के आदेश जारी करने का फैसला दिया है। वादी विष्णु गुप्ता की ओर से हरदयाल शारदा की ओर से लिखी पुस्तक का हवाला देते हुए वाद प्रस्तुत किया गया था, जिसमें उन्होंने अजमेर की दरगाह में शिव मंदिर होने का दावा किया है। इस मामले में अगली सुनवाई 20 दिसंबर 2024 को की जाएगी।मुमकिन है कोई शंकराचार्य इस मामले में गवाह बनकर पेश हो जाये।
हम हिन्दुओं की नई पीढ़ी बहुत जागरूक है इसलिए जो काम उनके पुरखे पांच सौ साल पहले नहीं कर पाए,उसे वे अब अंजाम दे रहे है।याचिकाकर्ता का दावा है कि   दरगाह की जमीन पर पहले भगवान शिव का मंदिर था। मंदिर में पूजा और जलाभिषेक होता था। याचिका में अजमेर निवासी हर विलास शारदा द्वारा वर्ष 1911 में लिखी पुस्तक का हवाला दिया गया है। पुस्तक में दरगाह के स्थान पर मंदिर का जिक्र है।पुस्तक कहती है की दरगाह परिसर में मौजूद 75 फीट लंबे बुलंद दरवाजे के निर्माण में मंदिर के मलबे के अंश तहखाने में गर्भगृह होने का प्रमाण मिल जाएगा।
ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की इस दरगाह को मंदिर बताते हुए इससे पहले हिंदू सेना की तरफ से मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष याचिका पेश की गई थी। हालांकि, न्यायाधीश प्रीतम सिंह ने ये कहकर सुनवाई से इनकार कर दिया था कि यह उनके क्षेत्राधिकार से बाहर है। इसके बाद जिला अदालत में याचिका पेश की गई। मुझे लगता है कि  इस तरह की फुटकर याचिकाओं पर सुनवाई के बजाय अब खुद सरकार को याचिकाकर्ता बनकर देश की तमाम मस्जिदों,दरगाहों, ईदगाहों और ताजमहल तक का सर्वे करने के लिए अदालत से दरख्वास्त करना चाहिए ,क्योंकि हम हिन्दुओं का पक्का विश्वास है कि  हर मस्जिद,दरगाह और ईदगाह के नीचे कोई न कोई मंदिर जरूर है।
अयोध्या की बाबरी मस्जिद को गिराने से शुरू हुआ ये अभियान बीच में थम गया था लेकिन अब एक के बाद एक शहर में ऐसी याचिकाएं लगाईं जा रहीं है।  पहले ज्ञानवापी का सर्वे हुआ । फिर संभल में सर्वे हो चुका है और दंगा भी सम्भल में 4  लोग मारे भी जा चुके हैं  । अब मथुरा और अजमेर की बारी है। अजमेर की दरगाह में पड़े-पड़े ख्वाजा साहब भी शायद उकता गए होंगे। सरकार को चाहिए की वो देश में मौजूद उन्नत तकनीक का इस्तेमाल कर अजमेर की दरगाह को जमीन से निकलकर नीलम कर दे ।  दुनिया का कोई न कोई इस्लामिक देश ख्वाजा साहब की दरगाह को खरीद लेगा और अपने मुल्क में ससम्मान स्थापित कर लेगा  
इस मुद्दे पर एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी भड़के हुए  है, जिसमें उन्होंने सरकार और अदालतों के कानूनी कर्तव्यों पर सवाल उठाए हैं। आजकल सवाल संसद सेमें हंगामे के कारण उठाये नहीं जा सकते,इसलिए ये सवाल एक्स के पटल पर उठाये जाते हैं।  एक्स का पटल संसद से ज्यादा महत्वपूर्ण होता जा रहा है।  ओवैसी ने  एक्स पर एक पोस्ट में उन्होंने लिखा, "सुल्तान-ए-हिन्द ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती भारत के मुसलमानों के सबसे अहम औलिया इकराम में से एक हैं. उनके आस्तान पर सदियों से लोग जा रहे हैं और जाते रहेंगे इंशाअल्लाह. कई राजा, महाराजा, शहंशाह, आए और चले गये, लेकिन ख़्वाजा अजमेरी का आस्तान आज भी आबाद है। "उन्होंने कहा कि 1991 का इबादतगाह कानून साफ तौर पर यह कहता है कि किसी भी इबादतगाह की मजहबी पहचान को नहीं बदला जा सकता. ओवैसी ने यह भी आरोप लगाया कि हिंदुत्व तंजीमों का एजेंडा पूरा करने के लिए कानून और संविधान का उल्लंघन किया जा रहा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस पर चुप है।
अब ओवैसी को कौन समझाये कि  हमारे वजीरेआजम हर संवेदनशील मुद्दे   पर चुप ही रहते है।  वे मणिपुर के मामले पर आखिर डेढ़ साल से चुप ही हैं न ? वजीरेआजम केवल तभी बोलते हैं जब उन्हें अपने मन की बात करना होती है ।  वे तभी बोलते हैं जब उनके घर के बंद कमरे में उनके सामने कैमरा हो। वे संसद में चुने हुए प्रतिनिधियों के सामने नहीं बोलते। उन्हें निर्वाचित सांसद गुंडे ,मवाली नजर आते हैं। तकलीफ की बात ये है कि  केंद्र की सरकार ऐसे प्रयासों का संज्ञान ही नहीं ले रही बल्कि उनका साथ दे रही है।  सरकार ये मानने के लिए तैयार ही नहीं है की इस तरह गड़े मुर्दे उखाड़ने से देश के सद्भाव को भारी नुक्सान हो रहा है। यदि सरकार मुस्लिम आस्थाओं का सम्मान कर रही होती तो खुद देश की सबसे बड़ी अदालत में खड़ी होकर दरख्वास्त करती की देश में किसी भी धार्मिक स्थल के सर्वे की किसी याचिका को मजूर न किया जाये। लेकिन मोदी युग में ये होना नामुमकिन है। इस युग में जो होना चाहिए वो ही तो हो रहा है।
जग-जाहिर  है की ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती एक प्रसिद्ध सूफी संत होने के साथ-साथ इस्लामिक विद्धान और दार्शनिक थे।उनकी ख्याति इस्लाम के महान उपदेशक के रुप में भी विश्व भर में फैली हुई थी। उन्होंने अपने महान विचारों और शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार किया एवं उन्हें भारत में इस्लाम का संस्थापक भी माना जाता था। उन्हें ख्वाजा गरीब नवाज के नाम से भी जाना जाता था। उनकी अद्भुत एवं चमत्कारी शक्तियों की वजह से वे मुगल बादशाहों के बीच भी काफी लोकप्रिय हो गए थे।उन्होंने अपने गुरु उस्मान हरूनी से मुस्लिम धर्म की शिक्षा ली एवं इसके बाद उन्होंने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए कई यात्राएं की एवं अपने महान उपदेश दिए। ख्वाजा गरीब नवाज ने पैदल ही हज यात्रा की थी। ऐसा माना जाता है कि करीब 1192 से 1195 के बीच में वे मदीना से भारत यात्रा पर आए थे, वे भारत में मुहम्मद से आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते थे, ख्वाजा साहब भारत आने के बाद शुरुआत में थोड़े दिन दिल्ली रुके और फिर लाहौर चले गए, एवं अंत में वे मुइज्ज़ अल- दिन मुहम्मद के साथ अजमेर आए और यहां की वास्तविकता से काफी प्रभावित हुए। इसके बाद उन्होंने अजमेर रहने का ही फैसला लिया।
बहरहाल मेरा मश्विरा है कि  यदि आपने ये दरगाह न देखी हो तो फौरन वक्त निकलकर देखा आएं,क्या पता आने वाले दिनों में ये दरगाह रहे भी या न रहे।  यहां फिर नए सिरे से कोई मंदिर तामीर कर दिया जाये। यही बात आगरा के ताजमहल के  बारे में लागू होती है ।  किस दिन कोई सिरफिरी भीड़ ताजमहल को भी नेस्तनाबूद कर सकती है।
@ राकेश अचल 

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